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________________ आचार्य समन्तभद्र ६७ भक्ति कहते हैं। जब तक मानव का अहंकार नही मरता तब तक उसकी विकास भूमि तैयार नहीं होती। पहले से यदि कुछ विकास होता भी है तो वह अहकार प्राते हो विष्ट हो जाता है, कहा भी है- "किया कराया सब गया जब आया हुंकार' । इस लोकोक्ति के अनुसार वह दूषित हो जाता है । भक्तियोग मे जहां ग्रहकार मरता है वहां विनय का विकास होता है। इसी कारण विकास मार्ग में सबमे प्रथम भक्तियोग को अपनाया गया है। आचार्य समन्तभद्र विकास को प्राप्त शुद्धात्माओं के प्रति कितने विनम्र और उनके गुणों में कितने अनुरक्त थे, यह उनके स्तुति ग्रन्थों से स्पष्ट है । उन्होंने स्वयं स्तुति विद्या में अपने विकास का प्रधान श्रेय भक्तियोग को दिया है। और भगवान जिनेन्द्र के स्तवन को भव-वन को भस्म करने वाली अग्नि बतलाया है। और उनके स्मरण को दुख समुद्र से पार करने वाली नौका लिखा है। उनके भजन को लोह से पारस मणि के स्पर्श समान कहा है । विद्यमान गुणों की अल्पता का उल्लंघन करके उन्हें बढ़ा चढ़ा कर कहना लोक में स्तुति कही जाती है । किन्तु समन्तभद्राचार्य की स्तुति लोक स्तुति जैसी नही है । उसका रूप जिनेद्र के अनन्त गुणों में से कुछ गुणों का अपनी अनुसार आशिक कीर्तन करना है । जिनेद्र के पुण्य गुणों का स्मरण एवं कीर्तन आत्मा की पाप परिणति को छुड़ाकर उसे पवित्र करता है और ग्रात्म विकास में सहायक होता है फिर भी यह कोरा स्तुति ग्रन्थ नही है । इसमें स्तुति के बहाने जैनागम का सार एवं तत्वज्ञान कूट कूट कर भरा हुआ है। टीकाकार प्रभाचन्द्र ने - ' निः शेष जिनोक्त धर्म विपयः और 'स्तवोयमसम' विशेषणों द्वारा इस स्तवन को अद्वितीय बतलाया समन्तभद्र स्वामी का यह स्तोत्र ग्रन्थ अपूर्व है । उसमें निहित वस्तु तत्त्व स्व-पर के विवेक कराने में सक्षम हैं । यद्यपि पूजा स्तुति से जिनदेव का कोई प्रयोजन नही है, क्योंकि वे वीतराग हैं- राग द्वेषादि मे रहित हैं । अतः किसी की भक्ति पूजा से वे प्रसन्न नहीं होते, किन्तु सच्चिदानन्दमय होने से वे सदा प्रसन्न स्वरूप हैं । निन्दा मे भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि वे वैर रहित हैं। तो भी उनके पुण्य गुणों के स्मरण से पाप दूर भाग जाते हैं और पूजक या स्तुति कर्ता की आत्मा में पवित्रता का संचार होता है । प्राचार्य महोदय ने इसे और भी स्पष्ट किया है : स्तुति के समय उस स्थान पर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो फल की प्राप्ति भी चाहे सीधी होती हो या न हो परन्तु आत्म-साधन में तत्पर साधु स्रोता की विवेक के साथ भक्ति भाव पूर्वक की गई स्तुति कुशल परिणाम की - पुण्य प्रसाधक पवित्र शुभभावों की - कारण जरूर होती है और वह कुशल परिणाम श्रेय फल का दाता है । जब जगत में स्वाधीनता से श्रेयोमार्ग इतना सुलभ है, तब सर्वदा अभिपूज्य हे नमि-जिन ! ऐसा कोन विद्वान अथवा विवेकी जन है, जो आपकी स्तुति न करें ? अर्थात् अवश्य ही करेगा । स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायस-पथे, स्तुयान्नत्वा विद्वानसततमभिपूज्यं नमिजिनम् ।। ११६ इन चतुविशति तीर्थकरों के स्तवनों में गुणकीर्तनादि के साथ कुछ ऐसी बातों का अथवा घटनाओं का भी उल्लेख मिलता है जो इतिहास तथा पुराण मे सम्बन्ध रखती हैं । और स्वामी समन्तभद्र की लेखनी से प्रसूत होने के ।" स्वयभृस्तोत्रटीका भवतीति स्वयंभूः १. "स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमव बुध्ध अनुष्ठाय वाऽनन्त चतुष्टयतया २. याथात्म्यमुल्ल घगुणोदयाऽऽय्य, लोके स्तुति र्भ रिगुणोदधेस्ते । अरिष्ठमप्यशमशक्नुवन्तो वक्त जिन ! त्वाँ किमिव स्तुयाम || - युक्त्यनु शामन २ ३. न पूजयार्थस्त्वपि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवान्त वैरे । तथापि ते पुण्यगुणम्मृतिनं पुनातु चित्त दुरिताञ जनेभ्यः ॥ — स्वयंभू स्तोत्र ५७
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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