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________________ ८६ जैनधर्म : जीवन और जग - है । यह दूसरी बात है कि हमारी इन्द्रिय उसे ग्रहण करती है या नही जैसे उपस्तु किरण, जो अदृश्य ताप किरणें हैं, उन्हे हम नही देख सकते किंतु उल्लू और बिल्ली इन किरणो की सहायता से देख सकते हैं । न्याय - दर्शन पृथ्वी आदि भूतो मे स्पर्श, रस, गंध और वर्ण इ पुद्गल धर्मों को समन्वित रूप मे स्वीकार नही करता । वह कही कही एक दो अथवा तीन धर्मों का ही अस्तित्व स्वीकार करता है । उसके अभिमत जल के परमाणुओ मे गध नही होती, अग्नि के परमाणुओ मे गध और र नहीं होते तथा वायु के परमाणुओ मे केवल स्पर्श ही होता है। किंतु जैन दर्शन पृथ्वी आदि के परमाणुओ मे मौलिक भेद नही मानता । वह सभी प्रकार के जड तत्त्वों में स्पर्श आदि चतुष्टयी की अवस्थिति को अनिवाय मानता है । न्याय दर्शन में पाच महाभूतो में उक्त पुद्गल धर्मों के अस्तित्व क स्वीकार न करने का एक कारण यह भी है कि वह पाचभूतो का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करता है । जैन दर्शन के अनुसार वे स्वतंत्र द्रव्य नही अपितु पुद्गल द्रव्य ही हैं । पुद्गल द्रव्य होने के कारण पृथ्वी, जल, अग्नि और हवा इन सब आठ स्पर्श, पाच रस, दो गध और पाच वर्ण निश्चित रूप से विद्यमान हैं जैसे अग्नि मे हमे सामान्यत गध की प्रतीति नही होती, क्योकि हमारी नासिका उसे ग्रहण नही करती । लेकिन गध- वहन - प्रक्रिया से ज्ञात होता है कि अग्नि मे भी गध है । एक गधवाहक यत्र का आविष्कार हुआ है, जो मनुष्य की घ्राणशक्ति से कही अधिक सवेदनशील है । वह सौ गज की दूरी पर स्थित अग्नि के गध तत्त्व को पकड़ लेता है । पुद्गल द्रव्य स्वतंत्र द्रव्य है । द्रव्य वह है जिसमे गुण और पर्याय हो । गुण ( Fundamental Reality) द्रव्य का अपरिवर्तनीय और स्थायी तत्त्व है । वह धौव्य (Continuity) का प्रतीक है । वस्तु के अवस्था भेद य रूपातर को पर्याय कहते हैं । प्रतिक्षण घटित होने वाला परिवर्तन उत्पा और व्यय - पर्याय का प्रतीक है । जैसे, शहर के गदे नाले का पानी भी जल शोधन की प्रक्रिया से स्फटिक-सा उजला हो जाता है, यह पर्याय परिवर्तन है, पर जल तत्त्व स्थायी है, यह ध्रोव्य है । पानी के रूप, रग, स्वाद और गध मे परिवर्तन हो जाता है फिर भी वह स्पर्श, रस, गध विहीन नहीं होता यह है पुद्गल द्रव्य का स्थायी भाव । विज्ञान की दृष्टि से पुद्गल द्रव्य मुख्यत चार वर्गों में विभाजित है १. ठोस, २ द्रव, ३. गैस और ४. प्लाज्मा । यद्यपि आधुनिक विज्ञान ने १०:३ ऐसे तत्त्वों की खोज कर ली है, पर वे सब उक्त तोनो मे समाविष्ट हो
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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