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________________ ८७ जन-दर्शन मे पुद्गल जाते हैं । ये तीनों तत्त्व सदा अपने-अपने वर्ग में ही रहें, यह जरूरी नहीं है, अपितु वे एक दूसरे के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैसें हैं, इन दोनो के मिलने से जल बन जाता है । जल वनस्पति मे रूपातरित हो जाता है। इस प्रकार गैस द्रव्य ठोस पदार्थ में बदल जाता है । दूसरी वात, जल अग्निशामक होता है, आग को वमा सकता है, लेकिन जल के उपादान-हाइड्रोजन मूलत ज्वलनशील है और ऑवमीजन गैस आग को उत्तेजित करने वाली है, तथापि ये दोनो गैसें एक निश्चित अनुपात में जब मिलती हैं तो दोनो के गुण-धर्म बदल जाते हैं । पानी आग को भडकाने की बजाय उसे वुझाने के काम आता है । पुद्गल की नित्यता पुद्गल द्रव्य चाहे कितना ही परिवर्तित हो जाए, उसकी मौलिकता कभी नष्ट नहीं होती। पुद्गल की मौलिकता है-स्पर्श, रस गध और वर्ण । ये पुद्गल से एक समय के लिए भी पृथक् नही होते । मौलिकता स्पातरित हो सकती है, पर स्पष्ट नही। पुद्गल द्रव्य की मौलिकता न किमी अन्य द्रव्य में परिवर्तित होती है और न किसी अन्य द्रव्य की मौलिकता पुद्गल द्रव्य में विलीन होती है। इसलिए जीव की भाति पुद्गल भी ध्रुव तत्त्व है। नित्य है। नित्य द्रव्य की पहचान है-जो कभी सख्या मे कम अधिक नहीं होता, जिसका न आदि हो, न अन्त । जो न किसी अन्य द्रव्य के रूप में परिवर्तित होता है और न किसी अन्य द्रव्य को अपने में परिवर्तित करता है। विश्व मे पुद्गल-परमाणु अनादिकाल से जितने थे, उतने ही हैं और अनतकाल तक उतने ही रहेगे । पुद्गल का परिणमन होता है, पर वह होता है पुद्गल मे हो । पुद्गल फभी जीव नहीं बनता और जीव कभी पुद्गल नही बनता । माधुनिक विज्ञान भी यही मानता है कि विश्व में स्थित पदार्थ मोर जर्जा को सयुक्त राशि सदा शाश्वत रहती है। पदार्य और कर्जा के स्पातरण के बावजूद भी पुल राशि सदा नचल बनी रहती है । जैन दर्शन के अनुसार पुद्गल द्रस्य अनत हैं । जनत परमाणओ और अनत प्रदेशी (विस्तार पे लिए पेयें--विश्व प्रहेलिया पृ २११, १७१) स्वघो से विश्व भरा पटा पुद्गल फो मनित्यता पुद्गल द्रप्र विश्व का एक महत्वपूर्ण घटक है । वह द्रव्य की अपेक्षा नित्य है, भूप रे जोर पर्याप की पेक्षा से ननित्य भी है। उसमे परिदन सोनिया निरतर पार रहती है। ईमा पो जातीसदी नदी तर वैमानिको को मान्यता पी पि मृत
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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