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________________ ८५ जैन-दर्शन मे पुद्गल ये वर्गणाए पूरे लोक में व्याप्त हैं । किन्तु इनका प्रयोग तभी सभव है, जब ये जीव द्वारा गृहीत हो जाए । इन वर्गणाओ के योग विना, ससारी प्राणी अपनी कोई भी क्रिया सपादित नही कर सकता। वह प्रतिक्षण इन वर्गणाओ के पुद्गला का ग्रहण, परिणमन और विसर्जन करता रहता है। हमे जितने भी जड पदार्थ दिखाई देते हैं, वे सब या तो जीव द्वारा गृहीत हैं या जीव द्वारा त्यक्त। प्रस्तुत चर्चा के माध्यम से पुद्गल द्रव्य के सम्बन्ध में प्राथमिक स्तर पर जानकारी देने का प्रयत्न किया गया है । इससे पुद्गल सम्बन्धी ज्ञान के साथ हमारी दृष्टि स्पष्ट हो जानी चाहिए कि जीव और पुद्गल ये दोनो ही मोलिक तत्त्व हैं । ससार मे जीव का स्थान महत्त्वपूर्ण है तो पुद्गल का स्थान भी कम महत्त्व का नहीं है। ससार पी लीला पुद्गलो की ही लीला है । जीव की सारी प्रवृत्तिया पुद्गल से ही संचालित हैं। पुद्गल के बिना जीव एक क्षण के लिए भी ससार मे नहीं रह सकता । पुद्गल-जगत् से सम्बन्ध विच्छेद होने पर ही जीव की मुक्ति सभव है। जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार यह विश्व छ द्रव्यो का समूह है । पर्याय की दृष्टि से छहो द्रव्य परिणमनशील हैं । परिणमन दो प्रकार का होता है -- स्वाभाविक और वैभाविक । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल इन चार द्रव्यों में स्वाभाविक परिणमन होता है । जीव और पुद्गल मे स्वाभाविक और वैभाविक दोनो प्रकार के परिणमन होते हैं। दृश्य जगत् की विचित्रता का कारण है जीव और पुद्गल का परिणमन । उसमे भी पुद्गल द्रष्य का परिणमन विशेष महत्त्वपूर्ण है । विश्व छोटे-बडे सभी दृश्य-पदार्प पुद्गल फे विविध परिणमनो के कारण ही निर्मित होते है और नष्ट होते हैं • पुद्गल का लक्षण है-स्पर्श, रस, गध तथा वर्णयुक्त होना । फिन्तु पुद्गल ये ये गुण विभिन्न प्रकार के परमाणुओ रे सयोग-वियोग के कारण निरन्तर बदलते रहते हैं । पुद्गल वा स्पर्श बदल जाता है, स्वाद घदल जाता है, गध बदल जाती है और रूप भी बदल जाता है, पिन्तु एप बात सातव्य है कि पुदाल मे सयोग-वियोग-जनित चाहे जितना परिपतन हो जाए फिर भी यह स्पर्शहीन, रनहीन, गधहीन और वर्णहीन नही होता। पुद्गल पा घोटा पा वटा, दृश्य या अदृश्य कोई भी स्प हो, उनमे सर्ग जादि चारो गुण बवायभावी हैं। जहा एक गुण होगा वहा प्रपट-भप्र पट रूप से रोप तीन गुण अवश्य होगे । यह वात विज्ञान भी स्त्रीपार करता है । प्रत्येश भौतिक पदापं सर्च नादि चारो गुणो से युक्त होता
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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