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________________ 82 / जैन धर्म और दर्शन समुद्रों में कुछ ऐसी मछलियां भी पायी जाती है जिनके सम्पर्क में आने से हमारे शरीर को झटका (SHOCK) लगता है। इन सब बातों से इसका अस्तित्व सिद्ध होता है। निःसरणात्मक तैजस शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है: शुभ तैजस :विश्व क्षेम की भावना से अनुप्राणित संयम के निधान तपस्वी निग्रंथ मुनि के दायें स्कन्ध से निकलकर बारह योजन तक फैले महामारी,रोग,दुर्भिक्ष,दावानल आदि को शांत कर सुख और शांति स्थापित करता है । यह सौम्य आकृति और शुभ्र वर्ण का होता है। अशुभ तैजस : सिंदूरी वर्ण और बिलाव की आकृति वाला अशुभ तैजस उग्र परिणामी मुनि के बायें कंधे से निकलकर बारह योजन तक के क्षेत्र में स्थित अपने बैरी को भस्म कर डालता है तथा अधिक देर ठहरने पर स्वयं भी (मुनि का शरीर) भस्म हो जाता है। अनिसरणात्मक तैजस शरीर सभी संसारी जीवों को होता है। यह दीवाल.पर्वत एवं वज्र पटलादिक से प्रतिघात को प्राप्त नहीं होता। इसीलिए इसे अप्रतिघाति कहते हैं। यह औदारिकादि तीनों शरीरों से सूक्ष्म होता है। कार्मण शरीर : अष्ट कर्मों के समूह रूप शरीर को कार्मण शरीर कहते हैं। यह जीव के समस्त कर्मों का प्ररोहक तथा उत्पादक है। सभी दर्शनों में इसे सूक्ष्म शरीर माना गया है। यह समस्त सुख-दुःखों का बीज है। यद्यपि यह शरीर दिखाई नहीं देता किंत इसके बिना औदारिकादि शरीर भी टिक नहीं पाते । मृत्यु के समय यह बाहर का स्थूल शरीर ही छूटता है परंतु यह कार्मण शरीर नहीं छूटता। यह जन्म-जन्मांतरों से जीव के साथ चला आ रहा है। तैजस और कार्मण शरीर का जीव के साथ अनादि संबंध है । जब जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों को नष्ट करता है तभी यह कार्मण शरीर अपना साथ छोड़ता है। वस्तुतः कार्मण वर्गणाओं का जीव से पथक हो जाना ही कर्मों का विनाश है। मनुष्य के सारे संस्कार इस कार्मण शरीर से ही प्रेरित हैं। इसे संस्कार शरीर भी कहा जाता है। देहांतर गमन की प्रक्रिया : मृत्यु के बाद जैसे हमारे कर्म संस्कार रहते हैं वैसी ही हमें गति मिलती है। उस समय यह स्थूल शरीर यहीं छूट जाता है। जीवात्मा कार्मण शरीर के सहारे ही अगली योनि तक जाता है। नवीन शरीर धारण करने के लिए होने वाली इस गति को विग्रह गति कहते हैं । जिस प्रकार हवाई जहाज अपने वायु पथ से जाता है उसी प्रकार देहांतर के प्रतिगमन करने वाला जीव भी अपने पथ से ही जाता है। वह आड़ा, तिरछा नहीं जाता अपितु बिल्कुल सीधा जाता है। कपड़े में रहने वाले ताना-बाना की तरह संपूर्ण आकाश में ऊपर-नीचे चारों दिशाओं में इसके सूक्ष्म पथ बने हुए हैं, इसे अनुश्रेणी कहते हैं । इनसे ही गुजरकर जीवात्मा अगली योनि तक पहुंचता है। देहांतर-गमन की इस प्रक्रिया में 1. अफ्रीका के एक इजीनियर ने “साइंटिस्ट सीकदि सोल नामक लेख लिखा है जिसके अनुसार प्रत्येक प्राणी के शरीर में एक निश्चित परिमाण में विद्युत् शक्ति होती है। मनुष्य के शरीर में लगभग 500 वोल्ट विद्युत् होती है। मृत्यु के समय वह विद्युत निकल जाती है। इससे जैन दर्शन में माने गए तैजस शरीर की सिद्धि होती है। -जैन दर्शन के विज्ञान सम्मत कतिपय सिद्धांत डॉ. कंछेदी लाल जैन मक्खन लाल स्मृति ग्रंथ पृष्ठ 328 2. तवा2/99/8.2/4191
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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