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________________ जीव और उसकी विविध अवस्थाएं / 81 जीव के शरीर जैन दर्शन में पांच प्रकार के शरीर माने गए हैं-औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण। ___ औदारिक : मनुष्य और तिर्यंचों के बाहर दिखाई पड़ने वाले स्थूल शरीर को 'औदारिक' शरीर कहते हैं। अत्यंत स्थूल होने के कारण यह औदारिक कहलाता वैक्रियिक छोटा, बड़ा, एक, अनेक आदि अनेक रूप बनाने को विक्रिया कहते हैं। विक्रिया से उत्पन्न होने के कारण इसे वैक्रियिक कहते हैं । यह देव और नारकियों के होता है तथा किन्हीं विशिष्ट तपस्वी मुनियों को भी तप के प्रभाव से यह प्राप्त होता है। यद्यपि यह स्थलता का उल्लंघन नहीं करता फिर भी औदारिक शरीर की अपेक्षा इसे सूक्ष्म कहा गया है। आहारक-जैन मान्यता के अनुसार जब किसी विशिष्ट ऋद्धि सम्पन्न मुनि के मन में कोई शंका या अन्य विकल्प उत्पन्न होता है तब उनके मस्तिष्क से पुरुषाकार शुभ्र आकृति वाला पुतला निकलता है और अपने अभीष्ट स्थान तक जाकर समाधान पाकर लौट आता है इसे 'आहारक' शरीर कहते हैं। यह विरले संयमियों को ही प्राप्त होता है तथा वज्र पटलादिक से भी व्याघात को प्राप्त नहीं होता, इसीलिए इसे अव्याघाती भी कहते हैं। वैक्रियिक शरीर की अपेक्षा यह और सक्षम होता तैजस शरीर-औदारिक और वैक्रियिक शरीर में कांति और प्रकाश उत्पन्न करने वाले शरीर को 'तेजस' शरीर कहते हैं। तेज शब्द अग्नि के अर्थ में प्रयुक्त है। पंच महाभूतों में अग्नि को तेज कहा गया है। तैजस शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी यही है। यह अनिःसरणात्मक और नि:सरणात्मक के भेद से दो प्रकार का होता है। हमारे शरीर में रक्त संचार ऊष्मा के कारण होता है। वह ऊष्मा यही अनिसरणात्मक तैजस है. तथा जिस जठराग्नि के माध्यम से पेट का भोजन पकता है वह भी इसी अनिसरणात्मक तैजस का कार्य आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में हम इसे इलैक्ट्रिकल बॉडी भी कह सकते हैं। 1 (अ) तैजसमन्तस्तेज. शरीरोष्मा यतोभुक्तानादिपाको भवति । न्याय कुमुद चंद्र 716 पृ. 852 (ब) इहोष्माभाव लक्षण तेज मर्व प्राणिणामाहार पाचकम् । त. भा. हरिभद्र सूरि 2.50 (स) ज तमणि स्मिरणप्पय नजइयसरीर त भुत्तण्णपाणपाचय होदुण अच्छदि अतो । घ. पु. 14/328
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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