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________________ 80 / जन धम आर दशन मन पाच इन्द्रियों के अतिरिक्त एक छठवी इन्द्रिय है मन । ये पाच इन्द्रिया तो बाह्य हैं परतु छठवी इन्द्रिय अतरग है । यह अत्यत सूक्ष्म है । मन एक ऐसी इन्द्रिय है जो सभी इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण कर सकता है। इसीलिए इसे सर्वार्थग्राही इन्द्रिय कहते हैं। मन को अनिन्द्रिय कहा गया है क्योंकि नाक, कानादि की तरह इसका कोई निश्चित स्थान और विषय नही है। अनिन्द्रिय का अर्थ इन्द्रिय का अभाव नहीं है, अपितु ईषत् इन्द्रिय है जैसे अनुदरा कन्या कहने का अर्थ बिना उदर वाली कन्या नही होता वरन् ऐसी कन्या होता है जिसका उदर गर्भ धारण करने में समर्थ नही है । उसी प्रकार चक्षु आदि के समान प्रतिनियत स्थान और विषय नही होने के कारण ही मन को अनिन्द्रिय कहा गया है। अन्य इन्द्रियों की तरह बाह्य आकार से रहित होने के कारण इसे अन्तकरण भी कहते हैं। यह सकल सकल्प विकल्पों का जाल माना गया है। द्रव्य और भाव के भेद से मन के भी दो भेद हो जाते हैं। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्यमन को अष्ट पाखुडी वाले कमल के आकार का हृदय में अवस्थित पौगालिक पिण्ड माना गया है। इसके ही आधार पर जीव सोच-विचार कर सकता है तथा विचारणात्मक मन को भाव मन कहा गया है। गतियो की अपेक्षा जीव के भेद-गतियों की अपेक्षा जीवों के चार भेद हैं। गतिया चार है। नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति । नरक गति के जीव "नारकी" कहलाते है। वे अत्यत क्रूर स्वभाव वाले, अत्यत विकराल और भयानक आकृति युक्त होते हैं। प्राय एक दूसरे से लडते रहते है। एक-दूसरे को मारने काटने में ही ये सुख मानते हैं। नारकियो का आवास इस पृथ्वी के नीचे पाताल लोक में माना गया है। मनुष्यों के अतरिक्त सभी स्थावर, एव त्रस जीवो की सृष्टि तिर्यच कहलाती है। पशु-पक्षी तो तिर्यंच है ही, क्षुद्र कीट-पतगे एव पृथ्वी से वनस्पति पर्यन्त सर्वस्थावर जीव भी तिर्यंच कहलाते हैं। मनुष्य तो हम लोग प्रत्यक्ष हैं ही। देव नारकियों से बिल्कुल विपरीत होते हैं। अर्थात् ये अत्यत सौम्य स्वभाव वाले तथा सुदर व मनोहर आकृति वाले होते हैं। इनका जीवन सादा विनोद और विलास में व्यतीत होता है। ये पृथ्वी से ऊपर ऊर्ध्व लोक मे रहते है। देवो के आवास को स्वर्ग कहते है। मनुष्यो और तिर्यचो की तरह देवों और नारकियों का शरीर चर्म और हड्डियो से युक्त नहीं होता, अपितु विशेष प्रकार का होता है। इनके शरीर को वैक्रियिक शरीर कहते हैं। ये अपनी इच्छानुसार अपने शरीर को छोटा, बडा, हल्का, भारी, एक या अनेक रूपो वाला बना सकते है। चार गतियो का यह सक्षिप्त परिचय है। इसकी विस्तृत जानकारी आगम ग्रन्थों से प्राप्त करनी चाहिए। देव, मनुष्य और नारकी पचेन्द्रिय और सज्ञी ही होते हैं। तिर्यंच गति मे एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव असज्ञी ही होते हैं तथा पचेन्द्रियों मे कुछ पशु-पक्षी सज्ञी और कुछ असज्ञी दोनों होते हैं। यही सकल ससारी जीवों का भेद 1 सर्वार्थ ग्रहण मन प्रमाण मीमासा 1124
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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