SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीव और उसकी विविध अवस्थाए / 79 झाककर आत्मा बाहर के पदार्थों को देख पाता है। (इद्रिय शब्द इद्र से बना है। इद्र का अर्थ लिग और चिह्न भी होता है। जिसके द्वारा आत्मा की पहचान हो उसे इद्रिय कहते है)' इद्रिया पाच हैं -स्पर्श, रसना, घाण, चक्षु तथा श्रोत्र या कर्ण इद्रिय । स्पर्श, रस, गध, वर्ण (रूप) और शब्द क्रमश इनके विषय है। आख, कान, नाकादि जो इद्रिया हमें दिखाई पड़ती हैं वह इद्रियो का बाहरी रूप है। इन्हे द्रव्येद्रिय कहते है तथा इनके आधार पर आत्मा का जो ज्ञान रूप परिणमन होता है उसे भावेद्रिय कहते जिसके द्वारा हल्का, भारी,रूखा,चिकना, गरम, ठडा, मृदु और कठोर रूप आठ प्रकार के स्पर्श का ज्ञान होता है उसे 'स्पर्शन' इन्द्रिय कहते है। यह जिनके पायी जाती है वे 'एकेद्रिय' कहलाते हैं ,जैसे वृक्षादि । खट्टा, मीठा, कडवा, कसैला और चरपरा रूप पाच प्रकार के रस का ज्ञान जिस इद्रिय के माध्यम से होता है, वह रसना इद्रिय है। स्पर्श और रसना यह जिन जीवो के पायी जाती है वे दो इन्द्रिय या द्विन्द्रिय कहलाते है, जैसे कृमि, शख, कौडी, सीप आदि। सुगध और दुर्गध का ज्ञान घ्राणेन्द्रिय (नाक) से होता है। स्पर्श और रसना के साथ घ्राणेन्द्रिय जिनके पास पायी जाती है उन्हे तीन इन्द्रिय जीव कहते है, जैसे-चीटी,खटमल , जू, कान-खजूरा आदि। चक्षु इन्द्रिय का विषय रूप है जिसके द्वारा लाल, काला, पीला, नीला, सफेद आदि विभिन्न रगों/रूपों का अवलोकन करते है, वह 'चक्ष' इन्द्रिय है। यह जिनके पास पायी जाती है वे चतुरिन्द्रिय कहलाते है, जैसे भ्रमर, तितली, मक्खी आदि । पाचवी इन्द्रिय श्रोत्र है। इसके द्वारा आत्मा सात प्रकार के शब्दों का ज्ञान प्राप्त करता है। यह पचेन्द्रियों के पायी जाती है । मनुष्य, हाथी, घोडा, कबूतर आदि सब के सब पचेन्द्रिय इन्द्रियों के विकास का एक निश्चित क्रम है। बाद की इन्द्रिय होने पर, पूर्व की इन्द्रिया अवश्य रहती हैं। इसलिए पचेन्द्रियों को सकलेन्द्रिय कहते हैं। द्वि इन्द्रिय.त्रि इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव “विकलेन्द्रिय” कहलाते हैं। क्योंकि इनके पास पूरी इन्द्रिया नही होती हैं। विकल यानि कम इन्द्रिया है। सज्ञी असज्ञी की अपेक्षा भेद पचेन्द्रिय जीव सज्ञी और असज्ञी के भेद से दो प्रकार के होते हैं। मन सहित सज्ञी कहलाते हैं। ये अपने हित और अहित का निर्णय करने में समर्थ रहते है तथा शिक्षा आलापादिक को समझकर उसके अर्थ को ग्रहण करने की क्षमता रखते हैं। असज्ञी जीव सन रहित होते हैं। उनमें शिक्षा आलापादिक को ग्रहण करने की क्षमता नहीं रहती। एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के जीव असज्ञी ही होते हैं तथा पचेन्द्रियों में भी कुछ पशु-पक्षी ही असझी होते हैं। शेष सभी जीव सज्ञी कहलाते 1 धपु 7/6
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy