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________________ 48 / जैन धर्म और दर्शन मान्यता है। संत तारण का प्रभाव मध्य प्रांत के ही कुछ क्षेत्रों तक सीमित रहा, जहां इनके अनुयायी आज भी है। इनकी संख्या दिगंबरों की अपेक्षा अत्यल्प है। इम प्रकार दिगंबर संप्रदाय में पंथ भेद होने के बाद भी उनमें किसी प्रकार का विद्वेष, वैषम्य नहीं पाया जाता। सब एक दूसरे से घुले-मिले हैं। इनकी आचार परंपरा लगभग एक-मी है। सभी दिगंबर प्रतिमा तथा तीर्थों को आदर्श मानते हैं तथा दिगंबर गुरुओं की उपासना करते हैं। दिगंबर जैन पूरे भारतवर्ष के विभिन्न भागों में फैले हुए हैं। उसमें भी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान तथा दक्षिण में महाराष्ट्र एवं कर्नाटक दिगंबर जैनियों के गढ़ हैं। इसके अतिरिक्त बिहार, बंगाल, असम एवं गुजरात में भी दिगंबर जैनों की काफी मख्या है। श्वेतांबर संप्रदाय श्वेतांबर संघ में निम्नलिखित प्रधान संप्रदाय उत्पन्न हए चैत्य वास : लगभग चौथी-पांचवीं शताब्दी में श्वेतांबर मंप्रदाय में वनवासी साधुओं के विरुद्ध एक चैत्यवामी संप्रदाय खड़ा हो गया। इस संप्रदाय के साधु वनों को छोड़कर चैत्यों/मंदिरों में निवास करने लगे तथा ग्रंथ संग्रह के लिए आवश्यक द्रव्य भी रखने लगे। इसी के पोषण में उन्होंने निगम नामक शास्त्रों की भी रचना की। हरिभद्र सूरि ने अपने संबोध प्रकरण में इन चैत्यवासी साधुओं की कड़ी आलोचना की है। समय-समय पर इन दोनों समुदायों के बीच शास्त्रार्थों और विवादों का भी उल्लेख मिलता है।' चैत्यवासी 45 आगमों को स्वीकार करते हैं। श्वेताबरो में आज जो 'जती' या 'श्रीपज्य' कहलाते है.वे मठवासी या चैत्यवासी शाखा की ही संतान है तथा जो सवंगी मनि कहलाते हैं वे वनवासी शाखा के हैं। संवेगी अपने को सुविहित मार्गी या विधि मार्ग का अनुयायी कहते हैं। स्थानकवासी : स्थानकवासी संप्रदाय की उत्पत्ति चैत्यवासी संप्रदाय के विरोध में हुई। पंद्रहवीं शताब्दी में अहमदाबादवासी मुनि ज्ञानश्री के शिष्य 'लोकाशाह' इस पंथ के जनक बने । उन्होंने मूर्ति-पूजा एव साधु समाज में प्रचलित आचार-विचार को आगम विरुद्ध बताकर उनका विरोध किया। इसे लोकागच्छ नाम दिया गया। उत्तरकाल में सूरत निवासी एक साधु ने लोकागच्छ की आचार्य परपरा में कुछ सुधार कर दुढिया मत की स्थापना की। __ लोकागच्छ के सभी अनुयायी इस संप्रदाय में सम्मिलित हो गए। ये लोग अपना धार्मिक क्रिया-कर्म मंदिरो में न करके स्थानकों (गुरुओं के निवास स्थान) या उपाश्रय में करते हैं। इसीलिए इन्हें स्थानकवामी कहा जाता है। इस संप्रदाय को साधुमार्गी संप्रदाय भी कहते हैं। ये लोग तीर्थयात्राओं में विशेष विश्वास नहीं रखते हैं। इनके साधु श्वेत वस्त्र पहनते हैं तथा मुख पर पट्टी बांधते हैं। इनके यहां 32 आगमों की ही मान्यता है। तेरा पंथ : स्थानकवासी संप्रदाय के साधुओं में आगे चलकर कुछ शिथिलता आने लगी। आचार-विचार में बढ़ती हुई शिथिलता के कारण श्रावकों में उसकी तीखी प्रतिक्रिया होने लगी तथा भिक्षुओं के प्रति श्रावकों की श्रद्धा भी डगमगाने लगी थी। यह सब देखकर 1 देखे, जैन धर्म, प कैलाशचद्र, पृ 318
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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