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________________ जैन इतिहास — एक झलक / 47 भट्टारक प्रथा भी लगभग यहीं से प्रारंभ हुई। यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि दिगंबर भट्टारक नग्न रूप को पूज्य मानते थे और दिगंबर मूर्तियों का ही निर्माण कराते थे । साथ ही यथा अवसर दिगंबर मुद्रा भी धारण करते थे। ये मठाधीश बनकर रहते थे तथा वहीं से ये तीर्थों एवं मठों की समस्त गतिविधियों का संचालन करते थे । पीठाधीश भट्टारकों के उत्तराधिकारी ही इन मठों के स्वामी होते थे । इस प्रकार भट्टारकों के आचार में कुछ शैथिल्य तो आया कितु दूसरी ओर उससे एक बड़ा लाभ यह हुआ कि इन भट्टारक गद्दियों और मठों में विशाल शास्त्र भंडारों से युक्त अनेक विद्या केंद्र स्थापित हो गए। मध्यकालीन साहित्य का सृजन प्रायः इसी प्रकार के केंद्रों में हुआ । इसी उपयोगिता के कारण भट्टारक गद्दियां प्रायः सभी प्रमुख नगरों में स्थापित हो गयीं और मंदिरों में भी अच्छा शास्त्र भंडार रहने लगा। यहीं से प्राचीन शास्त्रों की लिपि प्रतिलिपि कराकर विभिन्न केंद्रों में आदन प्रदान किया जाने लगा। आज भी भट्टारक युग में प्रतिलिपि कराए गए अनेक प्राचीन ग्रंथ जयपुर, जैसलमेर, ईडर, कारंजा, मूढ़बद्री, कोल्हापुर आदि के बड़े-बड़े शास्त्र भंडारों में सुरक्षित है। जैन संघ और संप्रदाय को भट्टारकों की यह देन अविस्मरणीय है । आज भट्टारकों का लगभग अभाव-सा हो गया है। मात्र दक्षिण भारत के कुछ प्रमुख स्थानों पर भट्टारकों की गद्दियां एवं मठ हैं जिनमें रहने वाले भट्टारक उन तीर्थों की समस्त गतिविधियों का संचालन करते हैं तथा उत्कृष्ट श्रावक के रूप में माने जाते हैं । तेरह पंथ और बीस पंथ - इसी भट्टारक परंपरा के विरोध में विक्रम की सत्रहवीं शदी में पं. बनारसीदास ने एक नए पंथ को जन्म दिया जो तेरह पंथ कहलाया । इन्हें अपने आपको तेरह पंथ कहने पर भट्टारकों के अनुयायियों ने अपने आपको बीस पंथी कहना प्रारंभ कर दिया। दोनों पंथों में 'तेरह' और 'बीस' की संख्या के जुड़ने की समस्या आज तक अनसुलझी है । अनेक विद्वानों ने इस संबंध में अनेक प्रकार की उपपत्तियां दी हैं। इस सबंध में पं. जगमोहनलालजी की यह उपपत्ति कुछ हद तक ठीक जंचती है। इनके अनुसार "उस समय देश में भट्टारकों की बीस प्रमुख गद्दियां थीं। उन्हें अपना गुरु मानने वाले बीस पंथी कहलाएं तथा जो तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करने वाले शुद्धाचारी मुनियों के उपासक थे वे तेरह पंथी कहलाये । वस्तुतः तेरह पंथ और बीस पंथ में कोई खास भेद नहीं है, मात्र पूजा पद्धति में ही अंतर है। बीस पंथी भगवान की पूजा में फल, फूल आदि चढ़ाते हैं जबकि तेरह पंथी उन्हें नहीं चढ़ाकर चावल आदि सूखे पदार्थ ही चढ़ाते हैं । तारण पंथ : पंद्रहवीं शताब्दी में जिस समय मुस्लिम आक्रांताओं ने जैन मूर्तिकला और स्थापत्य पर काफी आघात पहुंचा दिया था उसी समय एक तारण तरण नामक व्यक्ति ने इस पंथ को जन्म दिया। जो आगे चलकर संत तारण के नाम से ख्यात हुए। यह पंथ मूर्ति पूजा के विरोध में उत्पन्न हुआ। संत तारण तरण के द्वारा प्ररूपित होने के कारण यह पंथ तारण पंथ के नाम से ख्यात हुआ । संत तारण ने 14 ग्रंथों की रचना की । इनके अनुयायी मूर्ति पूजा नहीं करते थे । ये अपने चैत्यालयों में विराजमान शास्त्रों की पूजा करते हैं। इनके यहां संत तारण द्वारा रचित ग्रंथों के अतिरिक्त दिगंबर जैनाचार्यों के ग्रंथों की भी 1 भट्टारक सप्रदाय विद्याधर जोहरा पुरकर विशेष के लिए देखें— जैन सघ और सप्रदाय (तीर्थकर महावीर स्मृति ग्रंथ, ग्वालियर)
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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