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________________ जैन इतिहास-एक झलक/49 स्थानकवासी संप्रदाय में ही दीक्षित आचार्य 'भिक्षु' (जन्म 1783 कंटालियां, जोधपुर) ने वि. सं. 1817 चैत्र शुक्ल नवमी के दिन अपने पृथक् संघ की स्थापना कर ली। ऐसा कहा जाता है कि इस अवसर पर उनके साथ तेरह साधु और तेरह श्रावक थे। इसी संख्या के आधार पर इस संप्रदाय का नाम तेरा पंथ रख दिया गया। कुछ लोग तेरा पंथ से यह आशय भी निकलते हैं कि भगवान यह तुम्हारा ही मार्ग है जिस पर हम चल रहे हैं। स्थानकवासी संप्रदाय की तरह इस संप्रदाय में भी 32 आगमों को ही प्रामाणिक माना जाता है । इस संप्रदाय में एक ही आचार्य होता है और उसी का निर्णय अंतिम रूप से मान्य होता है। इसप्रकारमूर्तिपूजक-मंदिरमार्गी,स्थानकवासी औरतेरापंथनामकतीनसंप्रदायों में विभक्त श्वेतांबर संप्रदाय भारत के विभिन्न भागों में फैला हुआ है । गुजरात,राजस्थान एवं पंजाब में इनकी विशेष संख्या है। फिर भी दिगंबर जैनों की अपेक्षा इनकी संख्या आधी से भी कम है। - -- - -- दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा जैन परम्परा में ही नहीं अन्य धार्मिक परम्पराओं में भी उत्कृष्टतम साधकों के लिए दिगम्बरत्व की ही प्रतिष्ठा प्राप्त होती रही है। प्रागैतिहासिक एवं प्राग्वैदिक सिंधु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ों से प्राप्त कायोत्सर्ग दिगम्बर मुनियों के अंकन से युक्त मृणमुद्राएं मिली हैं, और हड़प्पा के अवशेषों में तो एक दिगम्बर योगिमूर्ति का धड़ भी मिला है। स्वयं ऋग्वेद में “वातरसना" (दिगम्बर) मुनियों का उल्लेख मिलता है। कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तरीय अरण्यक में उक्त वातरशना मुनियों को श्रमणधर्मा एवं ऊध्वरेतस (ब्रह्मचर्य से युक्त) बताया है। श्रीमद्भगवत् में भी वातरशना मुनियों के उल्लेख है। तथा उसमें व अन्य अनेक ब्राह्मणीय पुराणों में नाभेय ऋषभ को विष्णु का एक प्रारंभिक अवतार सूचित करते हुए उन्हें दिगम्बर ही चित्रित किया गया है। ऐसे उल्लेखों पर से स्व. डा. मंगलदेव शास्त्री का अभिमत है कि “वातरशना श्रमण" एक प्राग्वैदिक मुनि परम्परा थी, जिसका प्रभाव वैदिक धारा पर स्पष्ट है और जिसका अभिप्राय जैन मुनियों से ही रहा प्रतीत होता है। कई उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत आदि अनेक ब्राह्मणीय धर्मग्रंथों व वृहत् संहितादि लौकिक ग्रंथों और क्लासिकल संस्कृत साहित्य में भी बहधा दिगम्बर मनियों के उल्लेख एवं दिगम्बरत्व को प्रतिष्ठा प्राप्त है । राजर्षि भर्तृहरि लिखते हैं एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बर: कदा शम्भो भविष्यामि कर्म निर्मलन क्षमः ॥59 वैराग्य शतक -डॉ ज्योति प्रसाद जैन 'आस्था और चिन्तन' से जैन धर्म एव उसके विभिन्न संघों/सप्रदायो का यह सक्षिप्त इतिहास है। इनकी विस्तृत जानकारी एवं उत्तरकालीन इतिहास के लिए देखे-'भारतीय इतिहास एक दृष्टि'
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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