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________________ 46 / जैन धर्म और दर्शन 11. भगवान महावीर का गर्भ परिवर्तन हआ यह कल्पना है 12. महावीर का विवाह एवं कन्या का जन्म नहीं हुआ 13. मुनियों का अनेक गृहों से भिक्षा ग्रहण एक दिन में एक ही बार 14. मुनिगण अनेक बार भोजन ग्रहण करते हैं एक ही स्थान में खड़े-खड़े अपने हाथ में लेते हैं 15. महावीर स्वामी को तेजोलेश्या नहीं 16. ग्यारह अंगों की मौजूदगी अंग ज्ञान का लोप हो चुका उत्तरकालीन पंथ भेद मूलतः दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदाय के रूप में विभाजित जैन संघ समय-समय में अनेक गण गच्छादि के रूप में विभाजित होता रहा परंतु इनसे जैन मान्यताओं एवं मुनि आचार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया । यही कारण है कि उनमें से अधिकांश का आज नाम शेष रह गया है। जिनका परिचय हमें शास्त्रों से मिलता है। उत्तर काल में दोनों संप्रदायों में कुछ पंथ भेद अवश्य हए जो आज भी अपने किसी न किसी रूप में अस्तित्व में है। अतः विस्तार भय से उनका संक्षिप्त परिचय देते हैं। दिगंबर संप्रदाय भट्टारक संप्रदाय : प्रारंभ में सभी जैन साधु वनों और उपवनों में निवास करते थे तथा वर्षावास को छोड़कर शेष काल में वे एक स्थान पर अधिक नहीं ठहरते थे। मात्र आहार चर्या हेतु ही वे शहरों में आते थे। धीरे-धीरे चौथी-पांचवीं शताब्दी में इनमें चैत्यवास (मंदिर निवास) की प्रवृत्ति बढ़ी। यह प्रवृत्ति दोनो संप्रदायों में एक साथ बढी, जिसके फलस्वरूप श्वेतांबर संप्रदाय में वनवासी और चैत्यवासी गच्छ के रूप मे मुनियो के दो भेद हो गए। कितु दिगंबर संप्रदाय में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं मिलता। फिर भी यह निश्चित है कि उनमें भी चैत्यवास की प्रवृत्ति हो चली थी। प्रारंभ में चैत्यवास का प्रमुख उद्देश्य सिद्धांत ग्रंथों का पठन-पाठन और सृजन का था कितु आगे चलकर वन-उपवन को छोड़कर इनमें नगरवास की ओर झुकाव बढ़ता गया। फिर भी इनकी मूलचर्या में कोई अंतर नहीं आया। आचार्य गुणभद्र (नवमी सदी) ने मुनियों के नगरावास को देखकर खेद प्रकट किया परंतु बढ़ती हुई चैत्यवास की प्रवृत्ति को एक वर्ग विशेष ने अपने जीवन का स्थायी आधार बना लिया। ये ही आगे चलकर मध्य काल के आते-आते भट्टारक संप्रदाय के जनक बने । इनके कारण अनेक मंदिर भट्टारकों की गद्दियां एवं मठ आदि स्थापित हो गए तथा इनमें चैत्यवासी साधु मठाधीश बनकर स्थायी रूप से रहने लगे। इनका झुकाव परिग्रह और उपभोग के साधनों की ओर दिखाई देने लगा। श्वेतांबर संप्रदाय में तो यह प्रवृत्ति पहले से ही पायी जाती थी। परंतु दिगंबर संप्रदाय का यह वर्ग भी अब वस्त्र की ओर आकर्षित होने लगा। इसका प्रारंभ बसंत कीर्ति (13वीं सदी) द्वारा मांडव दुर्ग (मांडलगढ़ राजस्थान) में किया गया।
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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