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________________ श्रावकाचार | 237 के वस्त्र ही परिग्रह के रूप मे रखता है।। इस प्रकार वह सब कुछ पुत्रो को सौपकर गार्हस्थिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है, कितु मुक्त हो जाने पर भी सहसा घर नही छोडता । वह उदासीन होकर घर में ही रहता है, यदि उसके पुत्र कुछ सलाह मागते है तो वह उन्हें सम्मति भी दे देता है। 10 अनुमति विरति इस प्रकार नवमी प्रतिमा में समस्त सपत्ति एव जमीन जायदाद से अपना ममत्व हटाकर सब कुछ पुत्रो को सौपने के बाद,जब वह देख लेता है कि अब मेरी सलाह के बिना भी ये अपना काम-काज कर सकते हैं तो वह घर-गृहस्थी एव व्यापार के कार्यों में किसी भी प्रकार की सलाह देना भी बद कर देता है। अब वह अत्यत उदासीन होकर तटस्थ भाव से रहने लगता है। उसे किसी भी प्रकार की लाभ-हानि में कोई रुचि नही रहती। अब वह प्राय घर में न रहकर मदिर, चैत्यालय आदि एकात स्थानों में ही रहता है और अपना समय स्वाध्याय, सामायिक, ध्यान, चितन आदि में ही व्यतीत करता है। तथा अपने घर अथवा अन्य किसी साधर्मी बधु का निमत्रण मिलने पर ही वह भोजन ग्रहण करता है। इसके बाद घर छोड़ने में समर्थ हो जाने पर वह अगली श्रेणी की ओर कदम बढाता है। 11 उद्दिष्ट त्याग यह श्रावक की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। इस भूमिका वाला साधक गृह-त्यागकर मुनियों के पास रहने लगता है तथा भिक्षावृत्ति से अपना जीवन बिताता है। इस प्रतिमा के क्षुल्लक एव ऐलक रूप दो भेद है क्षल्लक क्षुल्लक का अर्थ होता है छोटा। मुनियों से छोटे साधक को क्षुल्लक कहते हैं। यह गृह-त्यागकर मुनियों के पास उपाश्रय में रहता है। दिन में एक बार भिक्षावृत्ति से भोजन ग्रहण करता है तथा मुनियों की सेवा, सुश्रूषा एव स्वाध्याय में लगा रहता है। इस क्षुल्लक के भी दो भेद होते है-1 एक गृह भोजी 2 अनेक गृह भोजी। अनेक गृहभोजी भिक्षावृत्ति करके भोजन करता है, वह श्रावकों के घर जाकर 'धर्म-लाभ हो' ऐसा कहता है, उसके ऐसा कहने पर यदि श्रावक उसे कुछ दे देते हैं तो ले लेता है अन्यथा बिना किसी विषाद के आगे बढ़ जाता है । इस प्रकार पाच मात घरों में उसे जहा अपने योग्यपूर्ण भोजन मिल जाता है, वही बैठकर किसी से पानी मागकर, सरस-विरस, गर्म-ठडे का विकल्प किए बिना भोजन करता है। इसी बीच कोई श्रावक विनयपर्वक अपने यहा ही भोजन करने का निवेदन करता है, तो वह वही पर बैठकर भी अपने पात्र में भोजन कर लेता है। भोजन के बाद गुरु के पास जाकर चारों प्रकार के आहार का अगले दिन तक के लिए (प्रत्याख्यान) त्याग कर देता है। एक गृह-भोजी क्षुल्लक मुनियों के आहार के लिए निकलने के बाद चर्या के लिए निकलता है। श्रावकों के द्वारा विधि के साथ भक्तिपूर्वक आहार दिये जाने पर वह भोजन करता है। दोनों प्रकार के क्षुल्लक अपने तप, सयम और ज्ञानादिक का गर्व किए बिना अपना बर्तन अपने ही हाथों से साफ करते हैं। ऐसा नही करने पर महान् असयम का दोष 1 का अनु 386 2 रकबा 146 3रक श्रा. 147 4 जे सि को 2/189
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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