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________________ 236 / जैन धर्म और दर्शन 5 सचित विरति पाचवी श्रेणी वाला वह दयालु श्रावक सचित पदार्थों का त्यागी होता है । वह मूल, फल,साक-सब्जी आदि वनस्पति के किसी भी अग या अश को अग्नि से सस्कारित किये बिना नही खाता। जैन धर्म के अनुसार वनस्पतियों में भी जीव पाये जाते हैं, जब तक ये कच्ची अवस्था में रहते हैं तब तक सजीव रहते हैं। अग्नि से सस्कारित हो जाने पर वे अचित्त हो जाते हैं। उससे प्राणी सयम और इद्रिय सयम दोनों पल जाता है, क्योंकि कच्चे फलादि वनस्पति अधिक स्वादिष्ट होने से अधिक खाये जाते हैं जबकि उबली वनस्पति कम खा पाते हैं। इसी प्रकार वह जल भी उबालकर हो पीता है। 6. दिवा मैथुन त्यागी/रात्रि भुक्ति त्यागी पाचों प्रतिमाओं का पालन करते हुए साधक जब दिन में मन, वचन, काय से स्त्री मात्र के ससर्ग का त्याग कर देता है, तब वह दिवा मैथुन विरत कहलाता है। इस भूमिका में आते ही वह दिन में सब प्रकार के काम-भोग का त्याग कर उन्हें रात्रि तक के लिए ही सीमित कर लेता है। इस प्रतिमा को रात्रि भुक्ति त्याग भी कहते हैं । वह रात्रि भोजन का मन, वचन, काय से त्यागी हो जाता है। 7. पूर्ण ब्रह्मचर्य पूर्वोक्त सयम के माध्यम से अपने मन को वश में करता हुआ साधक जब मन.वचन,काय से स्त्री मात्र के ससर्ग का त्याग करता है तब उसे ब्रह्मचारी कहते हैं । इस भूमिका में आने पर वह शरीर की अशुचिता को समझकर,काम से विरत हो,यौनाचार का सर्वथा परित्याग कर देता है। ब्रह्मचारी बनने के बाद वह अपने खान-पान और रहन-सहन में और अधिक सादगी ले आता है तथा घर-गृहस्थी के कार्यों से प्राय उदासीन रहता है। 8. आग्भ विरति ब्रह्मचारी बन जाने के बाद उसके अतस् में ससार के प्रति और भी अधिक उदासी आ जाती है,तब वह सब प्रकार के व्यापारादि कार्यों का पूर्णतया परित्याग कर देता है। इस प्रतिमा में आरभ सबधी समस्त क्रियाओ का त्याग हो जाता है। अत यहा आकर वह आरभी हिसा से भी बचने लगता है। "यहा तक कि अपना भोजन भी वह अपने हाथों से नही बनाता,किसी के द्वारा निमत्रण मिलने पर भोजन कर लेता है । हा,परिस्थिति विशेष में अपना भोजन स्वय भी बना सकता है। आरभविरति श्रावक खेती-बाडी,नौकरी आदि सब छोड देता है,और पूर्व में अर्जित अपनी सीमित सपत्ति से ही अपने जीवन का निर्वाह करता है। 9. पारिग्रह विरति पहले की आठ प्रतिमाओं का पालन करने वाला श्रावक जब अपनी जमीन-जायदाद से अपना स्वत्व छोड देता है तब वह परिग्रह विरति कहा जाता है। आठवी प्रतिमा में वह अपना उद्योग-धधा पुत्रों के सुपुर्द कर देता है कितु संपत्ति अपने ही अधिकार में रखता है । जब वह देख लेता है पुत्रों ने भली-भाति उद्योग/व्यवसाय को सभाल लिया है अब यदि इन्हें सौंप दिया जाए तो ये उसका रक्षण कर लेंगे, तब वह अपने पुत्र या दत्तक पुत्र को पचों के सामने बुलाकर सब कुछ सौंप देता है। अपने पास मात्र अपने पहनने 1 र कत्रा 141 2 का अनु381 3 वसुश्रा 296 4 रकबा 142 5 र कश्रा 143 6 ()र कत्रा 144 (ब) का अनु 385
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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