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________________ 238 / जैन धर्म और दर्शन लगता है ।' आजकल एक गृहभोजी क्षुल्लक ही मिलते है। ऐलक-ऐलक उद्दिष्ट त्यागी श्रावक का दूसरा भेद है । यह वस्त्र के रूप मे मात्र लगोटी धारण करता है। अपने हाथ में ही अजलि बनाकर दिन में एक बार भोजन करता है,तथा दो से चार माह के भीतर अपने सिर और दाढी मूछों के बालों को उखाडकर केशलोच करता है। क्षुल्लक पात्र में भोजन करता है, तथा कभी-कभी हाथ मे भी कर लेता है, लेकिन ऐलक सदा कर पात्र में ही भोजन ग्रहण करता है। क्षुल्लक प्राय केशलोच करता है तथा कभी-कभी कैंची से भी कटवा लेता है, ऐलक हमेशा ही केशलोंच करता है । ऐलक एकमात्र लगोट धारण करता है, क्षुल्लक लगोट के साथ एक खड वस्त्र (जितने वस्त्र खड से सिर ढकने पर पैर उघड जाये तथा पैर ढकने पर सिर उघड जाये) भी रखता है। ऐलक अपने हाथों में मयूर पखों की बनी पिच्छिका रखता है, क्षुल्लक के लिए पिच्छिका का प्रावधान नियम नही है । क्षुल्लक और ऐलक की शेष क्रियाए समान रहती हैं। दोनो ही उद्विष्ट त्यागी श्रावक कहलाते हैं। इस प्रकार दार्शनिक से लेकर उद्दिष्ट त्यागी तक नैष्ठिक श्रावक के ग्यारह भेद हो जाते है । स्त्री पुरुष सभी इन प्रतिमाओं का पालन कर सकते है । पुरुष श्रावक कहलाते है तथा स्त्रिया श्राविका । ग्यारहवी प्रतिमाधारी स्त्रिया क्षुल्लिका कहलाती हैं। वह अपने पास मात्र एक साडी और एक खड वस्त्र रखती हैं, तथा पात्र में ही भोजन करती है। पहली से छठवी प्रतिमा तक के श्रावक जघन्य,सातवी से नवमी तक मध्यम एव दशवी और ग्यारहवी प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। साधक अपनी क्षमताओं को बढाता हुआ ज्यों-ज्यों अपनी साधना में विकास करता है त्यों त्यों ऊपर की श्रेणियो मे चढता जाता है। प्रतिमाओ का उक्त क्रम जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए क्रमश आगे बढने की दृष्टि से रखा गया है। कोई भी साधक अपने उत्तरदायित्वो का अच्छी तरह निर्वाह करते हुए क्रमश इनका पालन कर कल्याण के पथ मे अग्रसर हो सकता है। साधक श्रावक साधक श्रावक-जीवन के अत में मरणकाल सम्मुख उपस्थित होने पर भोजन-पानादि का त्याग कर विशेष प्रकार की साधनाओ द्वारा सल्लेखनापूर्वक देह त्याग करने वाले श्रावक साधक श्रावक कहलाते है । सल्लेखना मे क्रमश शरीर और कषायों को कृश किया जाता है । इसका स्वरूप आगे बताया जायेगा। शास्त्र से ज्यादा महत्वपूर्ण गरु है। नाव न भी मिले यदि माक्षी मिल जाए तो धन्य भाग्य, माझी पार लगाने के कोई न कोई उपाय खोज लेगा। या हो सकता है तैरना सिखा दे, तो तुम खुद ही तैर जाओ इसलिए कोई अनुभवी चाहिए उस किनारे पर पहुचाने वाला। 1 सा. ध 7/144 2 वसु श्रा 301 3 वसुश्रा 311 4 महा पु 149
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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