SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार/ 235 (7) वचन शुद्धि (8) काय शुद्धि (9) अनपान शुद्ध । प्रतिग्रह : जैसे ही वह अपने सामने से किन्हीं मुनिराज को आहार मुद्रा में निकलते देखता है तो बड़े हर्ष के साथ निवेदन करता है कि हे । स्वामी नमोऽस्तु ! नमोऽस्तु: आइए, आइए; ठहरिए, ठहरिए; हमारा आहार जल शुद्ध है। यदि मुनिराज उसकी प्रार्थना सुनकर ठहर जाते हैं तो वह उनकी तीन प्रदक्षिणा देता है, फिर वह अत्यंत विनय के साथ उन्हें अपने घर में प्रवेश करने का निवेदन करता है, उसकी उक्त क्रिया को प्रतिग्रह या पड़गाहन कहते हैं। गह-प्रवेश होने के बाद उन्हें उच्चासन पर विराजमान कर सर्वप्रथम प्रासक जल से उनके चरणों को धोकर अहोभाव से अपने मस्तक पर लगाता है । तत्पश्चात् जल, गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलरूप अष्ट द्रव्यों से उनकी पूजा करता है। उसके बाद उन्हें प्रणाम कर वह निवेदन करता है कि हे स्वामी हमारा मनशुद्ध है, वचन शुद्ध है, शरीर से भी हम शुद्ध हैं, हमारे द्वारा निर्मित आहार जल भी अत्यंत शुद्ध है कृपा कर भोजन ग्रहण कीजिए।' उसके इस निवेदन पर मुनिराज जब आहार ग्रहण करते हैं तब वह पूर्वोक्त, श्रद्धादि सातों गुणों से युक्त होता हुआ आहार दान देता है। उक्त नवधा भक्ति और सात गुणों का जोड़ सोलह होता है इसलिए इसे 'सोला' कहते हैं। शुद्धि के अर्थ में रूढ़ सोला का अर्थ मात्र वस्त्रादिकों की शुद्धि से न होकर उक्त सोलह शुद्धियों से ही है। इसी प्रकार शेष पात्रों को भी यथायोग्य विनय करके वह आहार दान देता है। वह सिर्फ आहार दान ही नहीं देता बल्कि आवश्यकतानुसार औषधि दान भी देता है,समय-समय पर मुनियों को पिच्छि,कमंडलु एवं शास्त्रादि उपकरण भी देता है । इसी प्रकार मुनियों के रहने योग्य स्थान भी बनवाकर या व्यवस्था कर स्वयं को कृतार्थ करता है । यह सब क्रियाएं उसकी अतिथि संविभाग व्रत के अंतर्गत आती है। ऐसा कहा गया है कि इस प्रकार अभ्यागत् अतिथि की पूजा और सत्कार करने से उसके द्वारा गृह-कार्यों से अर्जित समस्त कर्म धुल जाते हैं । 3. सामयिक : यह नैष्ठिक श्रावक की तीसरी श्रेणी है। इसे तीसरी प्रतिमा भी कहते हैं। इस श्रेणी में आते ही वह पूर्वगृहीत सभी व्रतों के साथ तीनों मंध्याओं में सामायिक करता है। अभी तक वह दिन में दो बार अपनी सुविधानुसार सामायिक करता था, किंतु इस श्रेणी में आते ही वह तीनों संध्याओं में कम से कम 48 मिनट तक सर्वसंकल्प विकल्पों को छोड़कर आत्मचिंतन करता है । पूर्व में वह सामायिक अभ्यास रूप में करता था, अब वह व्रत के साथ करता है। सामायिक व्रत और प्रतिमा में इतना ही अंतर है।। 4. प्रोषधोपवास : इस श्रेणी में आने पर पूर्व की तरह पर्व के दिनों में वह उसी विधि से उपवास करने लगता है। पर्व के दिनों में पहले कही गयी विधि के अनुसार उपवास के अभ्यास हो जाने के उपरांत जब वह इन्हें व्रत रूप से करने लगता है,तब वह प्रोषधोपवासी कहलाता है। 1. वसु. श्रा. 226-231 2. र क. श्रा. 113 3. सर्वा. सि. 7/21, पृ. 280 4. गृहकर्मणापि निचित कर्म विमार्टि खलु गृहविमुक्तानाम्। अतिथिनाम् प्रतिपूजा रुधिर मल धावते वारि ॥ र क. प्रा. 114 5. चा पा. टी. गा. 25 6. वसु.भा. टी. गा 378
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy