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________________ श्रावकाचार | 225 ब्रह्मचर्याणुव्रत यौनाचार के त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं।' गृहस्थ अपनी कमजोरीवश पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण नहीं कर पाता। उसके लिए विवाह का मार्ग खुला है। गृहस्थ विवाह करके कौटुम्बिक जीवन में प्रवेश करता है। उसके विवाह का प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों का सेवन करना ही होता है। विवाह के बाद वह अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को माता-बहन और पुत्री की तरह समझता है, तथा पत्नी अपने पति के सिवा अन्य सभी पुरुषों को पिता, भाई और पुत्र की तरह समझती हुई अपने पति को सेवा में ही संतुष्ट रहती है । इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदार संतोष व्रत कहते हैं। इसके भी पांच अतिचार हैं।' अतिचार 1. अन्य विवाह करण : दूसरे के विवाह कराने का व्यवसाय करना, दिन-रात उसी चिंतन में लगे रहना, जिनका विवाह करना, अपने गार्हस्थिक कर्तव्य में सम्मिलित नहीं है, उनका स्नेह व लोभवश विवाह करना अन्य विवाहकरण है। 2. अनंग क्रीड़ा : विकृत और उच्छंखल यौनाचार में रुचि रखना, अप्राकृतिक मैथुन करना, अनंग क्रीड़ा है। 3. विटत्व : काम संबंधी कुचेष्टाओं को विटत्व कहते हैं। 4. कामतीवाभिनिवेश : काम की तीव्र लालसा रखना, निरंतर उसी के चिंतन में लगे रहना, कामोत्तेजक निमित्तों का संयोजन करना काम तीव्राभिनिवेश है। 5. इत्वरिकागमन : चरित्रहीन स्त्री-पुरुषों की संगति में रहना, व्यभिचारिणी स्त्रियों के साथ उठना-बैठना,उनसे संबंध बनाए रखना इत्वरिकागमन हैं। परिग्रह-परिमाणवत धन्य धान्यादि बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व, मूर्छा या आसक्ति को परिग्रह कहते हैं। मनुष्य के पास जितनी अधिक संपत्ति की कामना होती है उसके पास उतना ही अधिक ममत्व, मूर्छा या आसक्ति होती है। अपनी इसी आसक्ति के कारण आवश्यकता न होने पर भी वह अधिकाधिक धन प्राप्त करने की कोशिश करता है, किंतु जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ भी बढ़ता ही जाता है। वह अपने इसी लोभ के कारण अधिकाधिक धन-संग्रह करता है। परिग्रह की होड़ में दिन-रात बेचैन रहता है। यह लोभ और तृष्णा ही हमारे दुःख का मूल कारण है। धन-संपत्ति से सुख की कामना करना आग से आग बुझाने का प्रयास करने की तरह है। यद्यपि आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति थोड़े से प्रयत्न से की जा सकती है, किंतु आकांक्षाओं के अनंत होने के कारण मनुष्य में और-और जोड़ने 1. मैथूनमब्रह्म त सू. 7/16 2. र कत्रा 59 3 र क. श्रा60
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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