SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 224 / जैन धर्म और दर्शन कभी-कभी हृदयाघात (हार्टफेल) भी हो जाता है। अतः चोरी करने से अहिंसा नहीं पल सकती तथा चोरी करने वाला सत्य का भी पालन नहीं कर सकता क्योंकि सत्य और चोरी दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते । जिस पर अपना स्वामित्व नहीं है ऐसी किसी भी पराई वस्तु को बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी है। श्रावक स्थूल चोरी का त्याग करता है। वह जल और मिट्टी के सिवा बिना अनुमति के किसी के भी स्वामित्व की वस्तु का उपयोग नहीं करता। हां, सार्वजनिक वस्तुएं जो सब के लिए खुली हों, उसके लिए उसे किसी से अनुमति की जरूरत नहीं होती । वह मार्ग में पड़ी हुई, रखी हुई या किसी की भूली हुई, अल्प या अधिक मूल्य वाली किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करता । 1 अचौर्याणुव्रती उक्त प्रकार की समस्त चोरियों का त्याग कर देता है जिसके करने से राजदंड भोगना पड़ता है। समाज में अविश्वास बढ़ता है तथा प्रामाणिकता खंडित होती है । प्रतिष्ठा को धक्का लगता है। किसी को ठगना, किसी की जेब काटना, किसी का ताला तोड़ना, किसी को लूटना, डाका डालना, किसी के घर सेंध लगाना, किसी की संपत्ति हड़प लेना, किसी का गड़ा धन निकाल लेना आदि सब स्थूल चोरी के उदाहरण हैं । अचौर्याणुव्रती इनका त्याग करता है । अतिचार अचौर्याणुव्रत के पांच अतिचार हैं- 1. चौर प्रयोग, 2. चौरार्थ आदान, 4. हीनाधिक विनिमान और 5. प्रतिरूपक व्यवाहर 12 3. विलोप, 1. चौर प्रयोग : तरह-तरह के उपाय बताकर चोरी में सहायक होना, चोरी की योजना बनाना, चोरों को प्रेरणा देना तथा चोरों की प्रशंसा करना, दूसरों से चोरी करवाना तथा चोरी का अनुमोदन करना चौर प्रयोग है। 2. चौरार्थादान : जानबूझकर चोरी का माल खरीदना, उन्हें गिरवी रखना, चोरों से संबंध बनाए रखना, तस्करी का सामान खरीदना चौरार्थादान है । 3. विलोप: राजकीय नियमों का उल्लंघन करना, जैसे किसी की संपत्ति को छीन लेना या हड़प लेना, भूमि-भवन पर अवैध कब्जा करना, सार्वजनिक अथवा शासकीय भूमि पर अतिक्रमण कर अधिकार जमा लेना आदि क्रियाएं विलोप हैं। 4. हीनाधिक विनिमान: गैलन, मीटर आदि माप हैं, और किलो, तोला, ग्राम आदि तौल । माप-तौल के साधन बांट आदि में कमती-बढ़ती रखकर व्यापार में अधिक लेने और कम देने की नियत रखना होनाधिक विनिमान है । 5. प्रतिरूपक व्यवहार मिलावट करना, अधिक मूल्य की वस्तु में अल्प मूल्य की वस्तु मिलाकर बेचना, शुद्ध वस्तु में अशुद्ध वस्तु मिलाना, नकली वस्तुओं का व्यापार करना आदि सबको प्रतिरूपक व्यवहार कहा जाता है। इस प्रकार पवित्र में अपवित्र वस्तु मिलाकर अनुचित लाभ उठाना श्रावक के लिए वर्जित है । 1रक श्री. 57 2 र क श्री 58
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy