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________________ सम्यग्झान ७१ मर्यादित रूप में जानने लगता है, तब उसका वह जान अवधिज्ञान कहलाता है। मानव जाति ईर्षा कर सकती है कि देवयोनि और नरकयोनि के जीवो को जन्म से ही अवधिज्ञान प्राप्त रहता है । मगर नरक योनि के जीवो के लिए वह अधिक दुख का ही कारण बनता है । मन पर्यायज्ञान --मन पर्याय ज्ञान विशिष्ट साधक को ही प्राप्त होता है २ । जिसने सयम की उत्कृष्टता प्राप्त की है, जिसका अन्त करण अत्यन्त निर्मल हो चुका है, वही उस ज्ञान का अधिकारी होता है । इस ज्ञान के द्वारा किसी भी समनस्क प्राणी की चित्तवृत्तियो को, मनोभावो को जाना जा सकता है। सयम की उत्कृष्ट साधना मनुष्य योनि मे ही होती है, अतएव यह नान मनुष्य को ही हो सकता है । अवविज्ञान और मन पर्यायजान-दोनो ही यद्यपि अपूर्ण है, तथापि वह असाधारण है, उनकी एक बडी विशेषता यही है कि उनकी उत्पत्ति न इन्द्रियो से होती है, न मन से। आत्मिक चैतन्यशक्ति ही उनके प्रादुर्भाव का कारण है। (आधुनिक वैज्ञानिक जिसे (Clairvoyance) कहते है, उसके साथ कथचित् अवधिज्ञान की तुलना की जा सकती है । मन पर्याय ज्ञान टैलीपैथी या (Mind Reading) से मिलता-जुलता है ।) __केवल ज्ञान 3-जैनधर्म जान की पराकाष्ठा को अनन्त और असीम मानता है। ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान वा केवलजान, ज्ञान की उसी पराकाष्ठा के बोधक है। __ जिस ज्ञान से त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती समस्त वस्तुए एक साथ जानी जा सकती है, वह सर्वोत्तम ज्ञान, केवल ज्ञान कहलाता है । इस ज्ञान की प्राप्ति होने पर आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और परम चिन्मय वन जाता है। मनुष्य की साधना का यह अन्तिम फल है । इस फल की प्राप्ति होने पर प्रात्मा जीवन-मुक्त हो जाता है, और पूर्ण सिद्ध के सन्निकट पहुँच जाता है। १ नन्दी सूत्र ७। २. स्थानांग सूत्र० स्था० २, उद्देशा० १, सू० ७१ । ३ स्थानांग सू० स्थान ५, उद्देशा ३, सू० ४६३ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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