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________________ ६८ जैन धर्म प्राय वर्तमान विषय का ग्राहक है, जब कि श्रुतज्ञान त्रिकाल विषयक होता है। उदाहरण की भापा मे यह कहा जा सकता है कि मतिजान यदि दूध है, तो श्रुतज्ञान खीर है। मतिजान सण है तो, श्रुतजान उससे बनी रस्सी है । अभिप्राय यह है कि इन्द्रिय-मनोजन्य दीर्घकालीन जानधारा का प्राथमिक अपरिपक्व अश मतिजान है, और उत्तरकालीन परिपक्व अश श्रुत ज्ञान है । श्रुतजान अगर अपनी पूर्ण मात्रा मे प्राप्त हो जाता है तो मनुष्य श्रुतकेवली कहलाता है। श्रुत ज्ञान के मूल दो भेद है २ द्रव्यश्रुत और भाव श्रुत । भाव श्रुत जानात्मक है और द्रव्य श्रुत शब्दात्मक । द्रव्यश्रुत ही आगम कहलाता है। ९. श्रुत का प्रामाण्य -धर्म के क्षेत्र में आगम की सर्वाधिक महत्ता है । धर्म का धुरा आगम के इर्दगिर्द घूमा करता है। धार्मिक व्यक्ति की दृष्टि क्रिया, सभ्यता और संस्कृति आगम से अनुप्राणित होती है। अनेक भारतीय दर्शनो की भाति जैनधर्म भी आगम का प्रामाण्य अगीकार करता है; किन्तु उसके प्रामाण्य की उमने एक विगिप्ट कसौटी अगीकार की है। जैनधर्म आगम को अपौरुषेय, अनादिनिधन अथवा ईश्वर द्वारा प्रेषित मान कर छुट्टी नही पा लेता । उसका कथन है कि अपौरुषेय या अनादि आगम असभव है। अतएव वीतराग पुरुष द्वारा प्रणीत आगम ही विश्वसनीय एव प्रमाणभूत हो सकता है । जैनजगत् के दो महान दार्शनिक सिद्धसेन और समन्तभद्र ने स्वर मे स्वर मिला कर लिखा है-"जो प्राप्त द्वारा कथित हो, तर्क द्वारा उल्लघनीय न हो, जिसमे प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से वाधा न पाती हो, वही सच्चा शास्त्र या आगम है ।"3 यहा पहले ही विगेपण द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अपौरुषेय होने के कारण नहीं, वरन् प्राप्त पुरुप द्वारा प्रमाणित होने के कारण ही आगम को प्रामाणिक माना जाता है, कौन सा आगम प्राप्तप्रणीत है और कौन सा नही ? यह निर्णय करने के लिए शेप विशेषण प्रयुक्त किये गये है। __ जैनधर्म के अनुसार अनेकान्त दृष्टि के प्रवर्तक, अखण्ड सत्य के द्रप्टा, केवल ज्ञानी तीर्थङ्कर देव ने समस्त जगत के जीवो की करुणा के लिए प्रवचन १ "मई पुत्वं जेण सुअ न मई मुअ पुन्विआ", नन्दिसूत्र २४ । २ स्थानांन सूत्र, स्था० २ । ३ स्थानांग, स्था० २-७१
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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