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________________ सम्यग्ज्ञान ६७ के आधार पर अवग्रह आदि चारो के छह-छह भेद होते है और सब मिलकर चौबीस भेद हो जाते है । यहां एक स्पप्टीकरण कर देना आवश्यक है। मन और पाच इन्द्रियाँ ये ज्ञान के छह साधन दो वर्गों में विभक्त है, पहले वर्ग मे चक्षु और मन को छोड कर शेप चार इन्द्रियाँ सम्मिलित है, जो अपने अपने विपय का स्पर्श करके उसे जानती है। दूसरे वर्ग मे मन और चक्षु-इन्द्रिय है, जो अपने विषय को स्पर्श किये विना, दूर से ही जानती है । इस भेद के कारण ज्ञान के क्रम मे भी भिन्नता होती है। उस क्रमभेद को मन्दक्रम और पटुक्रम कहते है । मन और नेत्र पटुक्रम वाले, और चार इन्द्रियां मन्दक्रम वाली है। स्पर्गेन्द्रिय के साथ जब तक वायु का स्पर्श न हो, वह वायु को नही जान सकता । जिह्वा के साथ पदार्थ का सयोग होने पर ही रस का ज्ञान होता है। इसी प्रकार गध के पुद्गलो का नासिका के साथ और भाषाद्रव्यो का कर्णेन्द्रिय के साथ स्पर्श होना अनिवार्य है। तभी उनका ज्ञान होता है। इन्द्रिय और विषय का यह सवध व्यंजन कहलाता है। अवग्रह ज्ञान का कारण होने से चार प्रकार का यह व्यजन भी अवग्रह ही कहलाता है। पूर्वोक्त चौवीस भेदो मे इन चार भेदो को सम्मिलित कर दिया जाय तो मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद होते है। ७ श्रुत ज्ञान -सामान्यत श्रुत का अर्थ है-'सुना हुआ'। वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द को सुनकर श्रोता को वाच्य-वाचकभाव सवध की सहायता से जो शब्दबोध होता है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है। इस परिभाषा से स्पष्ट है कि श्रुतज्ञान से पहले मतिज्ञान का होना अनिवार्य है। ज्ञान के द्वारा श्रोता को शब्दो का जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है। तदनन्तर उस शब्द के द्वारा शब्द के वाक्य पदार्थ का ज्ञान होना श्रुतज्ञान है । . ८ मति-श्रुत का अन्तर -इस प्रकार मतिज्ञान और श्रुतमान मे कार्य-कारण का सवध है । मतिजान कारण और श्रुतज्ञान कार्य है। मतिज्ञान के अभाव मे श्रुतज्ञान उत्पन्न नहीं होता। यद्यपि दोनो ज्ञान साधी है, परोक्ष है, तथापि उनमे भिन्नता है। मतिज्ञान मूक और श्रुतज्ञान मुखर है । मतिज्ञान १. स्थानागसूत्र, स्थानांग ६, तत्त्वार्थसूत्र १११६ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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