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________________ जैन धर्म जाति और सम्प्रदाय के अन्यत्र व्यक्ति का अस्तित्व नही था । ऐसे अधकारमय युग में प्रकाश की किरण के समान महावीर की महागिरा गुंजित हुई। व्यक्तिव्यक्ति को अपना मुक्तिदाता मिला । न केवल मनुष्य, वरन् पशुप्रो ने भी शांति की सास ली । यज्ञ का जो धूमिल धूम्र पशु के लहू और मज्जा से गंधित था, अब केवल घी से पूर्ण रहने लगा । महावीर के साधु, सेवक सेना ज्ञान, कर्म और पाण्डित्य के दावेदारो के सिर झुक गए यह ज्ञान पर हृदय की, कर्म पर निष्काम भावना की और पांडित्य पर प्रेम की विजय थी । यह मानवता की वह सर्वोच्च स्थिति थी जो मानव में तब तक चले आए दानवत्व का अन्त करती थी । यात्रिक हिसा क्या वद हुई मानो कराल काल के काण्ड का मृत्युगीत बंद हो गया । प्रेम, शान्ति और त्याग का वातावरण मुखरित हुआ । ४४ इसके अतिरिक्त महावीर स्वामी ने तयुगीन समस्याओ पर विस्तृत रूप से विचार प्रदर्शित किए । यहा तक कि भगवान् ने व्यापार मे सतुलन, सत्य और मूर्च्छा का श्रावक को व्रत दिया । साधु के द्वारा महावीर स्वामी देश की आध्यात्मिक शिक्षा चाहते थे । सेवको की एक ऐसी सेना चाहते थे जिनके जीवन का धर्म मनुष्य मात्र को आध्यात्मिक मार्ग पर लाना हो । अर्थतंत्र की भावी विजय से महावीर स्वामी परिचित थे । उन्होने 4 पनी दूर दृष्टि से यह जान लिया था कि मनुष्य धन का दास बनने वाला है और वन से दास बनाने वाला है । इस रोग से समाज का निदान करने के लिए महावीर ने वर्गहीन अहिसक समाज का विधान दिया । समता तो उन्होने दो ही, साथ ही अपनी स्वल्प श्रावश्यकता से अधिक रखना भी पाप बतलाया । अपरिग्रह का उपदेश दिया । इसी प्रकार अणुव्रत-व्यवस्था की । भगवान् महावीर की महाव्रतो की व्यवस्था और जीवन-मुक्ति का उद्देश्य और प्रमाद के प्रति घृणा, प्रमाणित करते है कि वे अकर्म मे कर्म और कर्म अभाव में मुक्ति का उद्देश्य साकार करना चाहते थे । "" उन्होने भारतीय जीवन में ग्रहिसा की प्राण प्रतिष्ठा करते हुए
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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