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________________ जैन धर्म सभी तीर्थंकरो का जीवन कठोर तपोमय था। सभी तीर्थंकरो ने प्रव्रज्या अगीकार की, तीव्रतपश्चर्या की और पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। कृत कृत्य होकर भी जगत् के समस्त जीवो की करुणा-भावना से प्रेरित होकर मुक्तिमार्ग का उपदेश दिया, व्रतो की व्यवस्था की और तत्व का यथार्थ स्वरूप वतलाया । अन्त मे निर्वाण प्राप्त कर परमात्मा बने और सिद्ध बुद्ध तथा अनन्त यात्मिक गुणो से ___ समृद्ध हुए। इनमे से बहुप्रचलित तीन तीर्थकरों का जीवन परिचय नीचे दिया जाता है। भगवान् नेमिनाथ यह यदुवश के महान् प्रतापी महाराज समुद्रविजय के पुत्र और महारानी शिवा के आत्मज और श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे। वैदिक सन्ध्योपासना के गान्तिमत्र मे "अरिष्टनेमि शान्तिर्भवतु,” इन शब्दो से उनकी स्तुति की जाती है । वेदो मे भी अनेक स्थलो पर उनका उल्लेख हुआ है। ___ राजा उग्रसेन की कन्या राजमती के साथ इनका विवाह होना निश्चित हुआ। बारात रवाना हुई और श्वसुरगृह पहुच ही रही थी कि मार्ग मे अरिष्टनेमि ने पशुप्रो की करुण चीत्कार सुनी । सारथी से पूछने पर उन्हें विदित हुआ कि वारातियो के मासभक्षण के लिए यह सब पशु एकत्र किए गए है । यह जानकर उन्हे असह्य मनोव्यथा हुई । उनका अन्त करण करुणा से प्लावित हो उठा, उसी समय उन्होने सारथी को आज्ञा देकर सव पशुओ को बन्धन-मुक्त करा दिया। इस घटना का उनके जीवन पर स्थायी प्रभाव पड़ा। वे विवाह से मुख मोड कर विरक्त हो गये और तपस्या करने चले गये । ___ भगवान् अरिष्टनेमि का पशुरक्षण आन्दोलन जूनागढ के निकट से प्रारम्भ हुआ और समूचे सौराष्ट्र और भारत मे फैल गया। इस त्यागमूलक आन्दोलन ने लोगो के नेत्र खोल दिये । आज भी सौराष्ट्र मे शेष ससार की अपेक्षा बहुत कम हिंसा होती है, यह भगवान् अरिष्टनेमि के इस पशुसंरक्षण आन्दोलन का ही फल है। गिरनार गिरि पर आरूढ होकर अरिष्टनेमि ने स्वत दीक्षा धारण की। तपस्या करके कर्मो का क्षय किया और पूर्ण ज्ञानी बने । अन्त मे मुक्तिलाभ कर सिद्ध हो गए।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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