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________________ २२ जैन धर्म जैनधर्म भारत की उस साधना का प्रतिनिधित्व करता श्राया है जो सार्वभौम है, जो समाज र व्यक्ति में प्रमृतत्व की प्राप्ति का मूल स्रोत रही है । जैन साधना वस्तुशोधन की प्रक्रिया पर नही, जीवन-शोधन पर विश्वास करती है । अथर्ववेद मे व्रात्यो व्रतनिष्ठ मुनियो की साधना के जो उल्लेख पाये जाते है और भागवत मे भगवान् ऋषभदेव की कठोरतम साधना का जो चित्र उपस्थित किया गया है, उससे भलीभाति प्रकट हो जाता है कि जैनधर्म की साधना शरीर की ममता पर कुठाराघात करके ग्रहकार और ममकार का विनाश करती हुई अग्रसर होती है । वह स्वर्ग के स्वप्न नही देख सकती, मुक्ति का पथ प्रशस्त करती है । - विष्णु धर्मोत्तर पुराण खण्ड २ ग्र० १३१ मे "हसगीता" के नाम से यतिधर्मनिरूपण का अलग ही अध्याय रखा गया है, जिसमे जैन साबु के नियमो को ही यति धर्म का प्राचार बतलाया गया है । एक बार भोजन, मौनवृत्ति, इन्द्रियनिरोध, राग-द्वेष रहितता आदि जैन साधु के गुण ही विष्णुपुराण मे यतियो के गुण बतलाये गये है । जैनागम मे प्रसिद्ध दश धर्मो को ही यति धर्म कहा गया है । वि० ० पु० श्लोक ५९ । योगवासिष्ठ मे रामचन्द्र जी अपनी कामना इस प्रकार अभिव्यक्त करते है । " नाहं रामो न मे वाच्छा, भावेषु च न मे मनः । शान्तिमास्यातुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ " "मैं राम नही हूँ, मुझे किसी वस्तु की चाह नही है, मेरी श्रभिलाषा तो यह है कि मै जिनेश्वर देव की तरह अपनी ग्रात्मा मे शान्ति लाभ कर सकूँ ।" शिवपुराण मे भगवान् ऋषभदेव को विश्व का कल्याणकर्त्ता बताया गया है । इन सब उल्लेखो का अभिप्राय यह है कि भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित धर्म केवल श्रमण परम्परा का मूलाधार है, परन्तु वाह्मण परम्परा को भी उसकी महत्वपूर्ण देन है । भगवान् ऋषभदेव इस युग के प्रथम धर्म प्रर्वतक है । वेदो, वैदिक पुराणो और जैन साहित्य मे उनका उपदेश विकल या ग्रविकल रूप से उपलब्ध होता है । वह भारत की ही नही, विश्व की अनुपम विभूति थे । स्वनामयन्य भगवान ऋषभदेव विश्व के प्रथम महपि थे I
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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