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________________ अतीत की झलक दया करने वाला मनुष्य चाहे चाण्डाल हो या शूद्र, वही हमारे धर्म में ब्राह्मण कहा गया है। जिनं भगवान् का बताया हुया व्रत ही हमारे कल्याण का सच्चा मार्ग है। सब पर दया करो, शातचित्त होकर दया करो। राजा ने पूछा - "हे अये ! ये ब्राह्मण और प्राचार्य गगा आदि नदियो को पुण्यतीर्थ बतलाते है । यह कहा तक सत्य है ?" साघ :-"नरेश, आकाश से वादल एक ही समय जो पानी बरसाते है, वही पृथ्वी, पर्वत आदि सभी स्थानो मे गिरता है । वही वह कर नदियो मे इकट्ठा हो जाता है। नदिया तो जल बहाने वाली है। उनमे तीर्थ कैसा ? सरोवर और समुद्र सभी जल के आश्रय है । पृथ्वी को धारण करने वाले पर्वत भी केवल पापाणराशि है। इनमें तीर्थ नाम की वस्तु नही है।" "यदि समुद्र और नदियों में स्नान करने से सिद्धि मिलती तो मछलियो को तो सबसे पहले सिद्ध हो जाना चाहिए।" "हे राजेन्द्र ! एक मात्र जिन ही सर्वोत्तम धर्म है और तीर्थ है । संसार में जिन ही सर्वश्रेष्ठ है । उनका ध्यान करो।" राजा वेणु के मन मे अर्हत-धर्म के प्रति आस्था उत्पन्न हुई और उसने परमहंस धर्म (जैनधर्म) स्वीकार कर लिया। इस घटना से ऋपियो को वड़ी चिन्ता हुई। यह वृत्तान्त खूब विस्तृत है । इसके उल्लेख करने का आशय यह है कि पुराणकाल में जैनधर्म का प्रभाव इतना बढा हुआ था कि राजा वेणु जैसे भारतसम्राट भी उनके अनुयायी बन गये थे। वेणु की यह कहानी स्पष्ट घोषणा कर रही है कि बाह्याचार जैनधर्म का स्वरूप नही, उसका विश्वास जीवनशोधन पर है। अब जरा स्कन्दपुराण पर दृष्टि डालिए। वहा आवन्त्य रेखा खण्ड मे पाखण्डीजनो के त्याग के प्रकरण मे व्रतियो की निन्दा की गई है। वैदिक व्रत और नर्मदा के स्नान से पापविमुक्ति एव मोक्षप्राप्ति बतलाई गई है। दूसरे पुराणो तथा बृहदारण्यक उपनिपद् के आत्मविषयक गाये और अजातशत्रु के प्रश्नोत्तर भी जैनधर्म की ओर संकेत कर रहे है। साधना के क्षेत्र मे आर्हत् धर्म की साधना सर्वाधिक कठोरतम रही है।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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