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________________ १२ जैन धर्म पुरुषार्थ, शरीर उम्र श्रादि की तथा भौतिक पदार्थों में रस आदि की वृद्धि निरन्तर होती रहती है । ग्रवसर्पिणीकाल ह्रासकाल है। इन ग्रवनतिमीलवाल मे उक्त बातो मे निरन्तर हानि होती चली जाती है । तात्पर्य यह है कि दु.ख से सुख की ओर ले जाने वाला काल उत्सर्पिणीकाल और सुख से दुख ( वृद्धि मे ह्रास) की ओर ले जाने वाला काल अवसर्पिणीकाल कहलाता है । यह दोनो काल मिलकर कालचक्र कहलाते हैं। यह सृष्टि रूपी शकट के दो चक्र है। जैसे गाड़ी के चक्र में आरे बने रहते हैं और वे उस चक्र को विभक्त करते हैं, उसी प्रकार उत्सर्पिणी और ग्रवसर्पिणी काल मे छन्छ. प्रारे होते है । इन चारो का कालमान सख्यातीत वर्षो का होता है । छ रो के गुणनिप्पन्न नाम रखे गए है. (१) सुखमा सुखमा अत्यन्त सुखरूप । (२) सुखमा सुखरूप | (३) सुखमा दुखमा सुख-दुख रूप । (४) दुखमा मुखमा दुख-सुख रूप । (५) दुखमा दुख रूप और (६) दुखमा दुखमा, चत्यन्त दुख रूप । यह अवर्सापणीकाल के चारो का क्रम है । उत्सर्पिणीकाल के छ यारो का क्रम इससे विपरीत है । वह दुखमा सुखमा से प्रारम्भ होकर सुखमा सुखमा पर समाप्त होता है । प्रत्येक उत्तर्पिणी और ग्रवसर्पिणी काल मे चौवीस जिन तीर्यं - कर होते हैं । वह प्रचलित या लुप्तधर्म को पुन प्रचलित करते है । इस समय अवसर्पिणीकाल चल रहा है और हम लोग उसके पाँचवे आरे मे गुजर रहे है । सुख दुख नाम के चारे मे धर्मतीर्थंकरो का जन्म होता है । इस अवसर्पिणीकाल के तीसरे आरे मे आदि तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव का अवतरण हुआ । इसी श्रारे के तीस वर्प और साढे प्राठ मास शेष रहते उनका निर्वाण हो गया । श्रीमद्भागवत और मनुस्मृति के अनुसार भगवान् ऋषभदेव का जन्म मनु की पाँचवी पीढी मे हुआ था । गणना करने पर वह काल प्रथम सतयुग का अन्तिम चरण निकलता है । उस सतयुग के बाद श्राज तक २८ सतयुग बीत चुके है । ब्रह्मा जी की आयु का भी बहुत-सा भाग समाप्त हो चुका है ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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