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________________ प्रतीत की झलक जैन धर्म न तो किसी धर्मप्रवर्तक पुरुष के नाम से प्रचलित हुआ है और न किसी पुस्तक के नाम से । वह तो जिनो द्वारा उपदिष्ट धर्म है। इस भूतल पर सदा काल से जिन होते आ रहे है, अतएव जैनधर्मं कब प्रचलित हुआ, यह बतलाना सम्भव नही । पाश्चात्य विद्वान् पादरी राइस डेविड के शब्दो मे यही कहा जा सकता है कि जब से यह पृथ्वी है, तभी से जैनधर्म विद्यमान् है । फिर भी समय-समय पर होने वाले तीर्थकरो - जिनो द्वारा उसका उपदेश दिया जाता है और वह नूतन रूप में प्रकाश मे आता है, इस दृष्टि से उसे आदि भी कहा जा सकता है। अनन्त जीव धर्म का अनुसरण करके अपना कल्याण कर चुके हैं, अनन्त जीव अपना उद्धार करेगे, और अनेक जीव कर रहे है । धर्म का मंगल द्वार सदैव खुला रहता है । फिर भी क्रूर काल के प्रभाव से धर्म का पथ कभी-कभी कही-कही अवरुद्ध हो जाता है । उसे जिन भगवान् पुनः परिष्कृत करते हैं । यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा । जैनधर्म मे काल परम्परा वैदिकधर्म के चार युगो (सत्य, द्वापर, त्रेता तथा कलियुग ) की भाँति मूलत: दो भागो मे विभाजित की गई है -- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । उत्सर्पिणीकाल, विकासकाल है । इस काल मे जीवो के बल, वीर्य,
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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