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________________ जैन धर्म आचार सम्बन्धी अहिसा, विचार सम्बन्धी अहिंसा अर्थात् सत्य एवं स्वादाद का सम्मिलित स्वरूप ही जैनधर्म है।" जैन-धर्म विजेताओ का धर्म है क्योकि वह रागद्वेष के जीतने वाले जिन भगवान् द्वारा प्रतिपादित किया गया है। कर्म-मलल्प अरियो का नाश करने के कारण अरिहन्त देवो द्वारा प्रतिपादित होने से इसे निर्ग्रन्य धर्म भी कहा गया है। श्रीमद्भागवत् मे परमहस धर्म और कैवल्य-श्रुति में इसे यति-धर्म कहा गया है। इस अवसर्पणिक काल मे भगवान् ऋषभदेव इसके आदि प्रवर्तक थे और भगवान् महावीर २४ वे तीर्थकर। युग-युग से जव जीवन अपने प्रात्मस्वरूप को भूल जाता है तो अरिहन्त वा आद्वाणी हमे अहिंसा, सयम, तप और समन्वय का उद्बोधन देते आए हैं । वह दिवस धन्य होगा जिस दिन हमे ज्ञान, दर्शन, चारित्र के द्वारा हम अपने ही अन्तर मे मूर्छित परमात्मा को जागृत कर सकेगे और असीम आनन्द एव अनन्त ज्ञान को प्राप्त कर सकेगे। सच्चा यज्ञ तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरोरं कारिसंग। कम्मेहा संजम जोगसन्ती, होमं हुणामि इसिणं पसत्यं ॥ उत्तराध्ययन० १२, गा० ४४ ।। हे गौतम ! तप अग्नि है, जीव ज्योति स्थान है । मन, वचन, काया के योग कुड़छी है, शरीर कारिपाग है, कर्म इंधन है, सयम भोग शान्ति पाठ है। ऐसे ही होम से मैं हवन करता हूं। ऋषियो ने ऐसे ही होम को प्रशस्ति कहा है।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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