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________________ २३६ ___., जैन धर्म काल तक स्थिर रहने वाले है। गत् का शून्य रूप मे परिणमन नही हो सकता, और शून्य से कभी सत् का प्रादुर्भाव या उत्पाद नही हो सकता है। । पर्याय की दृष्टि से वस्तुओ का उत्पाद और विनाग अवश्य होता है ।। परन्तु उसके लिए देव, ब्रह्म, ईश्वर या स्वयभु की कोई आवश्यकता नहीं होती, अतएव न तो जगत् का कभी मर्जन होता है, न प्रलय ही होता है । अतएव लोक नाश्वत है। प्राणीशास्त्र के विशेपज माने जाने वाले श्री जे० बी० एस० हाल्डेन का मत है कि ----"मेरे विचार मे जगत् की कोई आदि नही है। सृष्टिविपयक यह सिद्धान्त अकाट्य है, और विज्ञान का चरम विकास भी कभी इसका विरोध नहीं कर सकता।" पृथ्वी का आधार-प्राचीन काल के दार्शनिको के सामने एक जटिल समस्या और खडी रही है। वह है इस भूतल के टिकाव के सबध में, यह पृथ्वी क्रिम आधार पर टिकी है। इस प्रश्न का उत्तर अनेक मनीपियो ने अनेक प्रकार मे दिया है। किसी ने कहा-“यह गेपनाग के फण पर टिकी है। कोई कहते है, "कछुए की पीठ पर ठहरी हुई है", तो किसी के मत के अनुसार “वराह की दाढ पर।" इन सब कल्पनालो के लिए ग्राज कोई स्थान नहीं रह गया है। __ जैनागमो की मान्यता इस सवध में भी वैज्ञानिक है। इस पृथ्वी के नीचे बनोदधि (जमा हुआ पानी) है. उसके नीचे तनु-बात है और तनुवायु के नीचे प्राकाग है। ग्राकाश स्वप्रतिष्ठित है, उसके लिए किसी ग्राधार की आवश्यकता नही है। __ लोकस्थिति के इस स्वरूप को समझाने के लिए एक बड़ा ही सुन्दर उदाहरण दिया गया है। कोई पुरुष चमडे की मगक को वायु भर कर, फुला दे और फिर मगक का मुंह मजबूती के साथ वाँव दे। फिर मशक के मध्य भाग को भी एक रस्पी से कस कर बांध दे। इस प्रकार करने से मगक की पवन दो भागो मे विभक्त हो जायेगी और मशक डुगडुगी जैसी दिखाई देने लगेगी। तत्पश्चात् मशक का मुंह खोल कर ऊपरी भाग का पवन निकाल दिया जाय और उसके स्थान पर पानी भर कर पुन मगक का मुंह कस दिया जाय, फिर बीच का बन्धन खोल दिया जाय, ऐसा करने पर मगक के ऊपरी भाग मे भरा हुआ जल ऊपर ही टिका रहेगा, वायु के आधार पर ठहरा रहेगा, नीचे नही जाएगा, क्योकि मशक के ऊपरी भाग मे भने पानी के लिए वायु प्राधार रूप है। इसी प्रकार वायु के अाधार पर पृथ्वी आदि ठहर हुए है। भगवती मूत्र श० १, उ० ६ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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