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________________ २२८ जैन धर्म - मच्या बढती घटती रही है, किन्तु जैन धर्म की सरिता कभी मूम्बी नहीं, वह सना से मानव-जाति को गान्ति का सदेग देती रही है। जनता पर और राजानो पर जैन धर्म का बहुत बडा असर रहा है। भारत के बड़े-बड़े सम्राट् जैन धर्म के ध्वज की या मे आत्मनिरीक्षण का पाठ पढते रहे हैं। स्वय भगवान् महावीर के समय मे ही जैन धर्म मगध' का राज्य-धर्म था। तात्कालिक भारत के १६ प्रमुव गज्यो मे जैन धर्म बहुत तेजस्वी रहा था। भ० महावीर के मामा की पाँच पुत्रियो ने ही पाँच राजानो को जैन धर्म की दीक्षा दी थी। यद्यपि महागजा चेटक की मात पुत्रियाँ थी, किन्तु इनमे मे दो तो, ब्रह्मचारिणी ही रही थी। मग इन पाँचो मे से प्रभावती ने सिन्धु मौवीर के सम्राट् उदयन को, गिवा ने अवन्नीपति चण्डप्रद्योत को, चेलणा ने मगधाधिपति श्रेणिक को, मृगावती ने वत्सपति गतानीक को और पद्मावती ने अगदेग के अधिपति दविवाहन को जैन धर्म को ओर उन्मुख किया था। उस समय के राजाम्रो और राजकुमारो राणियो और राजकुमारियों पर श्रमग महावीर का इतना प्रभाव था कि कितने ही गजपुत्रो और राजपुत्रियो ने माधु धर्म की दीक्षा तक ग्रहण की थी। वह जैन धर्म का स्वर्ण युग था, चारो पोर जै। धर्म की माधना का स्वर गूंज रहा था। गज्याश्रय जैनधर्म को पूर्णतया प्राप्त था किन्तु जैन धर्म प्राचार का धर्म है। उसे राज्याश्रय या व्यक्ति के आश्रय की तडप नही है उस समय यदि राज्यस्तर पर विधान के नाते जैन धर्म प्रचारोन्मुख बनाया जाता नो अत्यधिक विस्तृत हो जाता। विन्तु जैन धर्म लोकषणा और लोक मग्रहप्वृत्ति को धार्मिकता के लिए अनिवार्य गर्त नहीं मानता, फिर भी जैनधर्म का प्रचार बढा। सब मे पहली क्षति जैन धर्म को चेटक और कोणिक के वैवालि युद्ध मे हई, उसमे जैन धम के मानने वाले १८ राजाम्रो का विनाग हो गया, चेटक की पराजय हुई, और, कोणिक विजित होने पर भी जैनो का ग्लानि-पात्र बन गया और अत मे वह बौद्ध हो गया। फिर दो शताब्दी के बाद जैन धर्म का वर्चस्व गप्तवग के राजत्व काल मे वना। महागजा मगीक के पौत्र मम्प्रति ने तो गुरु गुणसुन्दर की प्राज्ञा लेकर जैन धर्म को विश्व विस्तृत करने के लिए बहुत प्रयत्न किया पर मम्प्रति के पश्चात् जैन धर्म के प्रमार की परम्परा चल नहीं सकी। यही कारण है कि उस समय जैन धर्म ईरान, अफगानिम्नान और ग्रीय ग्रादि समग्र देगो मे फैला। यही नहीं अपितु जैन धर्म ने ग्रीस के महान् चिन्तक पाइथेगोरस को "प्रार्हन" धर्म की दीक्षा दी। आज भी मसार में १ कंबोज, पाञ्चाल, कौशल, काशी, वत्स, श्रावस्ती, वैशाली, मगध, बग, कुशम्थल अग, धन फटक, आंध्र, कलिंग, अवंती, मिन्बुसौवीर ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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