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________________ भारिन और नीतिशास्त्र २१३ विषाद न करके उमे तपस्या का लाभ मान लेना आदि ऐसी चर्या है, जिसके लिए जीवन को एक खास तरह के साये मे ढालने की आवश्यकता होती है। साधना का आधार इनमे पहले माधु-जीवन की चर्या का जो उल्लेख किया गया है, उससे पाठक को यह स्याल अवश्य आ जाएगा कि जैन-साधु वैराग्य और त्याग की माक्षात् प्रतिमा होता है। उम के त्याग-वैराग्य का आधार क्या है ? यह प्रश्न बडा हो सकता है। इस का उत्तर शास्त्रो में दिया गया है। दास्तव मे इम उग्र साधना का उद्देश्य आत्म-शुद्धि है । यात्मा अनन्त जान, अनन्त दर्शन, अमीम अानन्द और विराट् चेतना का धनी होकर भी कर्म उपाधि के कारण सासारिक दुःख का भाजन बन रहा है। कर्म की उपाधि इस साधना के विना नष्ट नही हो सकती। इसी कारण सावु इस साधना को स्वेच्छापूर्वक अगीकार करता है। बैराग्य की क्षणिक तरग मे बह कर साधु बन जाने से काम नही चलता। ऐमा करने वाला व्यक्ति न इधर का और न उधर का ही रहता है, ऐसे अस्थिरचित्त लोगो को सावधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा है-"तू जिस श्रद्धा के साथ घर छोडकर निकला है, जीवन के अन्तिम श्वास तक उसी श्रद्धा का निर्वाह कर।" जिस श्रद्धा और विरमित से प्रेरित होकर मनुष्य श्रमणत्व अगीकार करता है, जीवन-पर्यन्त उसको स्थायी बनाए रखना साधारण बात नही । उसके लिए श्रमण को क्षण भर का भी प्रमाद न करके निरन्तर जागृत रहना पड़ता है । भगवान् महावीर ने कहा है सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरंति, आचाराग। "जो प्रमाद मे पड जाता है, वह मुनित्व से च्युत हो जाता है, अतएव मनिजन सदैव जागते रहते है।" सतत जागृति को बनाए रखने के लिए जैनशास्त्रो मे साधुनो के लिए विविध उपायो का निर्देश किया गया है। जिनका निस्तार-भय से यहा उल्लेख नहीं किया जा रहा है।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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