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________________ २१२ जैन धर्म साधु और श्रावक के व्रत पृथक्-पृथक् है, अतएव दोनो का प्रतिक्रमण भी भिन्न-भिन्न है । प्रतिक्रमण के पाच भेद है- १ दैवसिक, २ रात्रिक, ३. पाक्षिक, ४ चतुर्मासिक और ५. सावत्सरिक । दिन भर में हुए दोपो का सध्यासमय चिन्तन करना ( प्रतिक्रमण करना) दैवसिक और रात्रि सबधी दोषो का प्रात काल चिन्तन करना रात्रिक प्रतिक्रमण कहलाता है । पन्द्रह दिन के दोषो का चिन्तन करना पाक्षिक, चार मास के दोषो का चिन्तन करना चातुर्मासिक और वर्ष भर के दोषो का प्रतिक्रमण करना, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है । दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण प्रतिदिन सन्ध्या और प्रात समय किए जाते है | पाक्षिक प्रतिक्रमण पूर्णिमा और अमावस्या के दिन सध्यासमय, चातुर्मासिक पाढी, कार्तिकी और फाल्गुनी पूर्णिमा को तथा सावत्सरिक प्रतिक्रमण भाद्रपद मास मे पर्यूषण पर्व के अन्तिम दिन किया जाता है । ५ कायोत्सर्ग -- शरीर सम्बन्धी ममत्व को हटाने का अभ्यास करना कायोत्सर्ग श्रावश्यक है । इससे देहाध्यास हटता है, और समभाव का विकास होता है । ६ प्रत्याख्यान -- इच्छाओ का निरोध करने के लिए प्रत्याख्यान (त्याग) किया जाता है । आहार, वस्त्र, धन आदि बाह्य पदार्थो का त्याग करना, द्रव्यप्रत्याख्यान और राग-द्वेष, ग्रज्ञान, मिथ्यात्व आदि का त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है । साधना की कठोरता जैन श्रमण की आचार पद्धति ससार मे मुक्तिसाधना की कठोरतम प्रणाली है। केशलुचन, भूमिशय्या, पैदल विहार, अनियत वास अर्थात वर्षाकाल को छोड़ कर ग्राम नगर मे एक मास ग्रथवा सात दिन से अधिक न ठहरना, फूटी कौडी भी पास में न रखना, साथ ही इन्द्रियो पर विजय प्राप्त करने के लिए सतत जागृत रहना, अन्तःकरण मे कलुपता न आने देना, भूख-प्यास सर्दी-गर्मी डास-मच्छर का दर्शन आदि के कष्टो को धैर्य के साथ सहन करना, हमेशा हरेक वस्तु याचन करके ही ग्रहण करना, श्राहार-पानी का लाभ न होने पर
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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