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________________ जैन धर्म कि हम उसी एक अखण्ड सत्य को प्रकट कर रहे है जो त्रिकालाबाधित रूप से सदा विद्यमान रहा है। ____ भगवान महावीर कहते है --"जो जिन अर्हन्न भगवन्त भूतकाल में हुए, वर्तमानकाल में हैं, भविष्य मे होगे उन सबका एक ही गाश्वत धर्म होगा, एक ही ध्रुव प्ररूपणा होगी और वह यह कि "सब्बे जीवा न हन्तवा' किसी जीव की हिमा मत करो, किसी को मत सतायो और न किसी के पराधीन बनो, एवं न किसी को पराधीन वनायो।" ____ भगवान् बुद्ध ने कहा -"भिक्षुको मैने एक प्राचीन राह देखी है, एक ऐसा प्राचीन मार्ग जो कि प्राचीनकाल के अरिहन्तो द्वारा अपनाया गया था, मैं उसी पर चला और चलते हुए मुझे कई तत्वो का रहस्य मिला ।" ऋग्वेद का मन्त्र है -"एक सद विप्रा बहुधा वदन्ति" "मत् एक है, विद्वान् अनेको प्रकार से उसका प्रतिपादन करते है।" जगत के समस्त धर्म, धर्म नही है अपितु धर्म की व्याख्याये है, पूर्ण सत्य नही है, सत्य की खोजे है । ये सब सत्य के अनुसधान है। समन्वित रूप में अखण्ड सत्य का दिडनिर्देश करते है। __ जैनधर्म उसे ही अनेकान्त धर्म कहता है, वही पूर्ण है और माश्वत हे क्योकि अनेकान्त में ऐकान्तिक आग्रह नहीं। अाग्रह का यह फल हुआ कि आज धर्म की सात सी व्याख्याये हमारे भारतवर्ष मे उपलब्ध है, किन्तु वे सब एक दूसरे से भिन्न है और उनके मानने वाले भी भिन्नता की ओर बहे जा रहे है। धर्म के उस परमंक्य और असहमत सगम से हम दूर होते जा रहे है । निश्चित है, एकपक्षीयता अधूरेपन को सदा से जन्म देती आई है, अन्यथा धर्मों का मतभेद और विवाद आग्रह पर खडा न होकर स्वरूप पर खड़ा होता, सत्य और तत्त्व पर आधारित होता । वस्तुत स्वरूप से समस्त धर्म एक है। भगवान् महावीर ने अपने युग के ३६३ धर्मों का वर्णन किया है जिनमें कुछ क्रियावादी और कुछ विनयवादी, एवं कुछ अज्ञानवादी सम्प्रदाये थी। पर उनमें नमन्वय नहीं था, यही एक सबसे बडी भूल रही है कि धर्म के एक पक्ष पर हम वल दे देते हैं और दूसरे पक्ष से हम पीछे रह जाते है। इसी से आग्रहवृत्ति का उदय होता है। स्थानाग सूत्र के द्वितीय स्थान मे भगवान् महावीर ने वताया है कि धर्म के दो पक्ष है- एक श्रुत और दूसरा चारित्र। १. श्रुत के तीन प्रकार है ----सम्यक् श्रुत, नयश्रुत, मिथ्याश्रुत । न्यायावतार ।।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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