SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का स्वरूप धर्म को लेकर प्राचीन काल से ही चिन्तको में मतभेद रहा है। उसी मत___ विविधता का फल यह निकला कि आज जगत मे धर्म की २२०० सम्प्रदाये अस्तित्व म आ चुकी है । और भी अन्य सम्प्रदायों का नए-नए सम्प्रदायो के रूप में परिवर्तन होता चला जा रहा है । मानवजाति के साथ यह खेद-जन्य घटना प्रारम्भ से ही घटित होती रही है, कि धर्म की शक्ति सदा से साम्प्रदायिको के हाथो का खिलौना रही है और विज्ञान की शक्ति राजनीतिज्ञो के इशारो पर नाचती रही है। धर्म और विज्ञान सत्य का अनुसधान करते-करते मनुष्य को मिले है। धर्मों के अनुसधान की जन्म-भूमि एशिया है। एशिया के भूखण्डो से ही निकली हुई धर्म की धारागो ने समूचे जगत को प्राप्लावित किया है । भारतवर्ष धर्म के अनुसंधान मे सबसे आगे है । जैन, वैदिक और बौद्ध-धर्म की धाराएं इसी देश से निकली है, यद्यपि जोंस्थ, यहूदी, ईसाई, इस्लाम-धर्म की परम्पराएँ ईरान, पैलेस्टाइन और अरब के जन-मानस से प्रस्फुटित हुई है और लाप्रोत्से ताओ और कन्फ्यूशियस तथा सिन्तो धर्म की धारागो ने चीन और जापान को धर्म का पाठ पढाया है। जगत के इन तमाम धर्म-प्रवर्तको ने ऐसा कभी नही कहा कि हम एक नया धर्म प्रवर्तित कर रहे है, अपितु उन सब ने एक ही स्वर मे उद्घोषित किया है
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy