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________________ २०० जैन धर्म १. मनोगुन्ति - २. वननगुप्ति ३. कायगुप्ति मन को अप्रशस्त, अशुभ वा कुत्सित संकल्पो से हटाना। असत्य, कर्कग, कठोर, कप्टजनक अथवा अहितकर भाषा के प्रयोग को रोकना। शरीर को असत् व्यापारो से निवृत्त करके शुभ व्यापार में लगाना, उठने बैठने, सीने, जागने आदि गारीगिक क्रियानो मे यत्ला--सावधानी रखना। अनाचीर्ण साधु की साधना का व्यवस्थित रूप से निर्वाह हो, इस प्रयोजन से जैनगास्त्रों मे वावन अनाचीर्णो का उल्लेख कर दिया गया है। अनाचीर्ण वह कृत्य है जिनका महर्षि साधको ने आचरण नहीं किया है। अतएव जो अनाचारणीय है, इनमे साधु की लगभग सारी त्याज्य वाह्य चर्या का समावेश हो जाता है । इनका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-- १. औद्देशिक अपने निमित्त बनाये हुए भोजन, पानी, मकान या किसी भी अन्य पदार्थ को ग्रहण करना। २. निर्यापण्ड मेगा एक ही घर से आहार लेना, भ्रामरी-वृत्ति का आश्रय न लेना। ३. क्रीतकृत साधु के लिए खरीदी हुई वस्तु ले लेना। ४. अभ्याहृत - उपाश्रय मे या जहा साधु ठहरा हो, वहां श्रावक आहार आदि लाकर दे और उसे ग्रहण कर लेना। ५. त्रिभक्त रात्रि मे भोजन करना । ६. स्नान - नहाना। इत्र, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ काम मे लाना। ८. माल्य माला पहनना। ६. वीजन पखे, पुढे या वस्त्र आदि से हवा करना। १० मन्निवि दूसरे दिन के लिए भोजन का मग्रह कर रखना। ११. गृहिपात्र गृहस्थ के पात्र मे पाहार करना। १२. राज पिण्ड - राजा के लिए वना पौष्टिक आहार लेना। १३. किमिच्छक दान- दानशाला आदि में जाकर सदावर्त लेना, भिखारियो को दी जाने वाली भिक्षा मे से हिस्सा बटा लेना। ७. गंध
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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