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________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १८९ आज ससार के समक्ष जो जटिल समस्याएं उपस्थित है, सर्वव्यापी वर्ग सघर्ष की जो दावाग्नि प्रज्वलित हो रही है, वह सव परिग्रह - मूर्छा की देन है । जब तक मनुष्य के जीवन मे अमर्यादित लोभ, लालच, तृष्णा, ममता या गृद्धि विद्यमान है, तब तक वह शान्तिलाभ नही कर सकता । अतएव परिग्रह की सीमा कर लेना आवश्यक है । यही परिग्रहपरिमाण अणुव्रत कहलाता है । इस अणुव्रत का अगर व्यापक रूप से पालन किया जाय तो भूमंडल को स्वर्गधाम बनने में पल भर देर न लगे । सर्वत्र मुख और शान्ति कासाम्राज्य स्थापित हो जाय । इस अणुव्रत का पालन करने के लिए निम्नलिखित पाच दोपो से वचना श्रावश्यक है -- १. मकानो, दुकानो तथा खेतो की मर्यादा को किसी भी बहाने से वदाना । २. इसी प्रकार सोने-चादी ग्रादि के परिमाण को भग करना । ३. द्विरद ( नौकर ) तथा चतुप्पद (गाय, घोडा आदि) के परिमाण का उल्लघन करना । ४ मुद्रा. जवाहरात प्रादि की मर्यादा को भग करना । ५. दैनिक व्यवहार मे ग्राने वाली वस्त्र, पात्र, ग्रासन ग्रादि वस्तु के लिए परिमाण को उल्लघन करना । गुणव्रत और शिक्षा व्रत -- पूर्वोक्त पाच प्रणुव्रत गृहस्थ के मूल व्रत है । उनका भली भाति श्राचरण करने के लिए कुछ और व्रतो की भी आवश्यकता होती है । जिनसे मूल व्रतो की सपुष्टि, श्रीर वृद्धि और रक्षा होती है। उन्हे उत्तर व्रत कहते है, उन्हें भी दो भागो मे विभक्त किया गया है । गुणव्रत और शिक्षा व्रत । गुणव्रत तीन, और शिक्षा व्रत चार है ।" यह सब मिलकर श्रावक के बारह व्रत कहलाते है । उनका सक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है १ दिग्व्रत २ -- मनुष्य की अभिलाषा ग्राकाश की भाति असीम और अग्नि की तरह वह समग्र भूमण्डल पर अपना एकच्छत्र साम्राज्य स्थापित करने का मधुर स्वप्न ही नही देखती, वरन् उस स्वप्न को साकार करने के लिए विजय- अभिमान भी करती है । ग्रर्थ लोलुपी मानव तृष्णा के वश होकर विभिन्न देशो मे परिभ्रमण करता है। विदेशो में व्यापार-सस्थान स्थापित करता है और इधर-उधर मारा-मारा फिरता है । मनुष्य की इस निरकुश तृष्णा को नियन्त्रित १ औपपातिक सूत्र, वीरदेशना । २ उपासक दशाग अ० १ ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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