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________________ १८८ जैनधर्म चोरी है। गृहस्थ के लिए सम्पूर्ण चोरी का त्याग करना कठिन है, तथापि स्थूल चोरी का त्याग करना ही चाहिए। सेध लगाना, जेब काटना, डाका डालना, सूद के बहाने किसी को लूट लेना, आदि स्थूल चोरी के अन्तर्गत है। अचौर्याणुव्रती को इन पाच वातो से वचना चहिए --- १. चोरी का माल खरीदना । २. चोर को चोरी करने में सहायता देना । ३. राज्य-राष्ट्र के विरुद्ध कार्य करना, जैसे उचित 'कर' न देना आदि। ४. न्यूनाधिक नाप-तोल करना। ५. मिलावट करके अशुद्ध वस्तु वेचना। ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत-कामभोग एक प्रकार का मानसिक रोग है । उसका प्रतिकार भोग से नहीं हो सकता। यह समझ कर मानसिक बल शारीरिक स्वस्थता और पात्मिक प्रकाश की रक्षा के लिए संभोग से सर्वथा बचना पूर्ण ब्रह्मर्यव्रत है। जो पूर्ण ब्रह्मचर्य की आराधना नही कर सकता, उसे कम-से-कम पर स्त्रीगमन का त्याग तो करना ही चाहिए। इस प्रकार परस्त्रीत्याग और स्वस्त्री सन्तोष करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। सभोग की प्रतिक्रिया मे असंख्य सूक्ष्म जीवों का वध होता है। इससे राग, द्वेष और मोह की वृद्धि होती है । वह समस्त पापो का मूल है । अतएव जो गृहस्थ उसे अपनी पत्नी तक सीमित कर लेता है और पत्नी में भी अत्यासक्ति नहीं रखता, वह अन्त मे काम वासना पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर सकता है। ब्रह्मचर्याणुव्रती को निम्नलिखित पाच वातो से बचना चाहिए ----- १ किसी रखेल आदि के साथ कसम्बन्ध स्थापित करना । २. कुमारी या वेश्या आदि के साथ गमन करना । ३ अप्राकृतिक रूप से मैथुन सेवन करना। २. अपना दूसरा विवाह करना तथा दूसरों के विवाह सम्बन्ध स्यापित करते फिरना। ५ कामभोग की तीव्र अभिलाषा रखना। ५. परिग्रह परिमाण अणुवत--परिग्रह ससार का बडे से बड़ा पाप है। १. उपासक दशांग, अ० १। २ उपासक दशांग अ०१।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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