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________________ कर्मवाद सभी आस्तिक दर्शनो ने एक ऐसी सत्ता अंगीकार की है जो जीवतत्त्व को प्रभावित करती है। उसे स्वीकार किये बिना जीवो मे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली विषमता की, तथा एक ही जीव में विभिन्न कालो मे होने वाली विरूप अवस्थानो की सगति किसी भी प्रकार सभव नही है । सव जीव स्वभावत समान है तो एक मनुष्य और दूसरा कीट के रूप मे क्यो है ? अगर जीव नित्य है तो मृत्यु उसे क्यो अपना शिकार बना लेती है ? अगर विराट चैतन्य उसका स्वरूप है तो जडता और अज्ञान के गहन अधकार मे जीव क्यो ठोकरे खा रहा है ? अमूर्त है तो शरीर के कारागार मे क्यो बद्ध है ? इस प्रकार की प्रश्नमाला जीवविरोधी दूसरी सत्ता को स्वीकार किये विना समाधान नहीं पाती। वह सत्ता वेदान्त मे माया या अविद्या, साख्य मे प्रकृति और वैशेषिक दर्शन मे अदृष्ट नाम से अंगीकार की गई है । जैनदर्शन उसे 'कर्म' कहता है । प्रत्येक दर्शन मे उस सत्ता का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का है। किन्तु जैनदर्शन में कर्म का जैसा सागोपाग और तर्क-सगत विवेचन है, वह अन्यत्र कही नहीं देखा जाता। जैनाचार्यों ने कर्म-सिद्धान्त पर विपुल साहित्य-सृजन किया है। पुद्गल द्रव्य की अनेक जातियाँ है, जिन्हे जैनपरिभाषा मे वर्गणाए कहते है । उनमे एक कार्मण-वर्गणा भी है और वही कर्म-द्रव्य है । कर्मद्रव्य सम्पूर्ण लोक
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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