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________________ ११८ जैन धर्म सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। जव वक्ता बोलता है, तो वे पुद्गल शव्द रूप मे परिणत हो जाते है और एक ही समय मे लोक अन्तिम छोर तक पहुँच जाते है। उसकी गति का वेग हमारी कल्पना से भी बाहर है। जमीन पर वनी पगडडियो की तरह आकाश मे भी श्रेणिया है, जो पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ऊपर और नीचे की ओर फैली है। वक्ता द्वारा प्रयुक्त गब्द इन श्रेणी रूप मागों से फैलता है। श्रोता यदि समश्रेणी मे स्थित हो तो भी वह कोरे वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द नही सुनता, बल्कि वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द-द्रव्यो तथा उन शब्दद्रव्यो से वासित हुए बीच के गब्द द्रव्यो के संघर्ष से उत्पन्न मिश्रशब्दो को सुनता है । भिन्न श्रेणी मे स्थित श्रोता मिश्र शब्द भी नही सुन पाता । वह उच्चारित मूल गब्दो द्वारा वासित गब्द ही सुन सकता है। वक्ता द्वारा उच्चारित या भेरी अादि से उत्पन्न शब्दो के संघर्ष से बीच मे स्थित भापावर्गणा के पुद्गल गव्द रूप में परिणत हो जाते है । वे वासित गब्द कहलाते है। विश्रेणी में दूसरे-तीसरे समय मे ही शब्द सुनाई देता है पर जैन मान्यता के अनुसार बोला हुया गन्द दूसरे समय मे सुनने योग्य नहीं रह जाता । इससे अनुमान होता है कि विश्रेणी मे सुनाई देने वाले शब्द वक्ता द्वारा उच्चारित मूल गब्द नहीं है, वरन् उस गव्द द्वारा वे शब्द रूप में परिणत किए हुए दूसरे ही शब्द है। जल मे पत्थर डालने से एक लहर उत्पन्न होती है। वह लहर अन्य लहरो को उत्पन्न करती हुई जलागय के अन्त तक जा पहुँचती है। इसी प्रकार वक्ता द्वारा प्रयुक्त भापाद्रव्य अग्रसर होता हुआ आकाश मे स्थित अन्यान्य भापायोग्य पुद्गलो को भापा के रूप में परिणत करता हुआ लोकान्त तक चला जाता है। लोकान्त में पहुंचते ही उसकी श्राव्य-शक्ति समाप्त हो जाती है। परन्तु अन्यान्य भापाद्रव्यो को शब्द रूप में परिणत कर देता है और वे नवीन उत्पन्न हुए शब्द, मूल तथा मिश्र गब्दो की प्रेरणा से गतिमान् होकर विश्रेणियों की पोर अग्रसर होते है । इस प्रकार सिर्फ चार समयो मे सम्पूर्ण नोकाकाग उन गब्दो में व्याप्त हो जाता है। (विशेप जानकारी के लिए दैनिए-प्रजापना मूत्र, भापापद) । ता इन्द्रिय का विषय रूप है। रूप काला, नीला, पीला, लाल और स्नेत--पान मार है। शेष नव रूप इन्ही के मम्मिश्रण के परिणाम है ।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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