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________________ ( ज वेद, जैन संस्कृति को अभीष्ट हैं एवं जैन इस काल-युग के अपने आदि बुद्ध के नाम के साथ वेदों के निर्माण की कथा को सम्मिलित करते हैं । जैन आगमों ने वेदों को 'प्रमाण माना है और फिर जैन तो संसार का सर्वे श्रेष्ठ समन्वयकारी दार्शनिक सिद्धांत प्रस्तुत करने वालों में सर्व प्रथम थे, तब कैसे कहा या माना जा सकता है कि वे अपने आपको हिंदू सस्कृति से पृथक मानेंगे | तीन सहस्र वर्ष पूर्व, संकीर्णता को देख, समाज विधान को सुधारने का प्रयास करने के कारण जैन पृथक मान लिये जाय यह क्योंकर सम्भव है ? राजनीति व देश के नागरिक के नाते सव भारतीय हैं। दार्शनिक विकाश सिद्धान्त के नाते कोई शैव है, कोई बौद्ध तो कोई जैन । इस पृथकत्व का भी जो कारण है वह महावीर के उपदेशों से स्पष्ट है । जाति भेद के कारण भारतीय शुभ्र गगन में कालिमा व कलङ्क के जो बादल उमड़ने लगे थे उन्हें देख कर सर्व प्रथम उनका हृदय विरक्त हुआ एवं उन्होंने यह उदूघोषणा की कि प्रत्येक मनुष्य समान है । जाति भेद से कोई मानव श्रमानव नहीं हो जाता और न ऊँच नीच होता है । उन्होंने ही जाति भेद के महाकाल को नष्ट करने के लिये ये अभ्रभेदी वाक्य कहे थे कि "कर्म से ब्राह्मण या क्षत्रिय या शूद्र होता है, जन्म से नहीं" अर्थात् जिसके जीवन की धारा जिस श्रेणी की भावनाओं या व्यवहार की ओर से बहती हो वह उस कर्म व उस भाव के कारण तदू जाति का कहा जा सकता है और वैसा कर्म या भाव परिवर्तन करते ही जाति का बदल जाना अनिवार्य है ।
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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