SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिणाम हुआ भारतीय संस्कृति के जैन रूपमें, जिसका जिक्र हम अाज कर रहेहैं । जैन संस्कृति भारतीय संस्कृति का ही एक अंग है वह अस्वीकार नहीं किया जा सकता । विदेशी इस्लाम व ईसाई धर्मो के आगमन के कारण कुछ लोग अपनी सकीर्णवृत्ति का परिचय दे इस एकत्व को भूल बैठते हैं । हिन्दू शब्द धर्म । का विशेषण न होकर राजनैतिक व भौगोलिक विशेषता का द्योतक है। उसे धर्म के दायरे में घसीटने का प्रयत्न करने वाले ईसाई, जिनकी नीति ही सदा से रही कि भारतीय संस्कृति के टुकड़े कर उसमें भापसी कलह के बीज बोये जाया और आज इसी का परिणाम है कि इस देश की संस्कृति में आपस का पार्थक्य बहुत बढ़ गया है। दार्शनिक क्षेत्र में विदेशियों के आगमन के पूर्व वाद विवाद द्वारा सिद्धान्त निर्णय के बड़े २ प्रसङ्ग आते थे किन्तु समाज के जीवन में आज का सा कालुष्य व कलह न था । इने गिने मूखों द्वारा रचित दो चार द्वेष भरे श्लोकों अथवा ग्रन्थों के उल्लेख मात्र से मैं यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि समाज के दैनिक जीवनमें बड़ा भारी पार्थक्य रहा होगा । यहप्रश्न आज विचारणीय है कि जैन अपने आपको हिंदू संस्कृति से पृथक माने या सम्मिलित ? हिंदू शब्द भारतीय संस्कृति को स्वीकार करने वाले प्रत्येक ब्यक्ति का उदबोधन कराने में समर्थ है। हां, जहां, धर्म या व्यवहार का प्रश्न आता हो वहां जैन व शैव व वैष्णव आदि का पृथक २. जिक्र किया जा सकता है (वह भी इस अनैक्यता से भरे हुए, वातावरण के परिस्कृत न हो जाने तक ही)।
SR No.010220
Book TitleJain Darshanik Sanskriti par Ek Vihangam Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhkaransinh Bothra
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy