SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५ जैन दर्शन ज्ञानीके लिए एक भी कारण ऐला मालूम नहीं देता कि जिससे उन्हें भोजन करना पड़े। इसी लिये उन्हें हम निराहारी मानते हैं। श्वेताम्बर जैन:-महाशयजी! आपने जो केवलज्ञानीको निराहारी सिद्ध करनेका प्रयास किया है वह हमारी समझ सुजव बिलकुल निरर्थक है । हम मानते हैं कि केवलज्ञानीको आहार करनेकी आवश्यकता है क्योंकि आहार करनेके जो जो कारण बतलाये हैं वे सब उनसे सम्बन्ध रखते हैं। श्राहार करनेके कारणोंका कससे निर्देष इस प्रकार है--परिपूर्ण शरीरकी रचना, वेदनीय कर्मका उदय, आहारको पचानके लिये मिला हुआ तैजस शरीर और लंवा आयुष्य,ये चार वस्तुयें जिसको होती हैं उसे विना आहारके चल ही नहीं सकता । जिसे हम केवल ज्ञानी कहते हैं उसे भी ये चार वस्तुयें होती हैं, इसलिये वे विना भोजन किये किस तरह रह सकते हैं ? केवलज्ञान होनेसे पहले तो केवलज्ञानी भोजन करते थे और अब केवल ज्ञान हुए बाद ऐसा कौनसा परिवर्तन उनके शरीर में हो गया है कि जिससे उन्हें भोजन करनेकी जरूरत ही न पड़े ? आपने जो यह कहा कि केवल शानीके उदयमें आनेवाला वेदनीय कर्म जली हुई रस्सीके समान निर्वल होता है। श्रापका यह कथन यथार्थ नहीं। क्यों कि यदि केवल ज्ञानीके उदयमें आनेवाला वेदनीय कर्म निर्बल हो तो वह अत्यंत सुखका अनुभव किस प्रकार कर सकता है ? और शास्त्रमें तो केवल ज्ञानीको अत्यंत सुखका उदय फरमाया है। इस से ही यह सिद्ध हो सकता है कि उसके उदयमें धानेवाला वेदनीय' कर्म ( सुख वेदनीय या दुःख वेदनीय ) निर्वल नहीं हो सकता है । तथा ज्ञानावरणादि काँका नाश होनेसे उसे. परिपूर्ण ज्ञान तो प्रगट होता है परन्तु इससे उन्हें भूख ही न लगे यह किस तरह बन सकता है ? क्योंकि सूख लागनेका कारण जो वेदनीय कर्म है उसका तो अभी उसने नाश नहीं किया है । इसलिये वेदनीय कर्सके कारण भूख लगनी ही चाहिये और इसी लिये उन्हें आहार भी लेना चाहिये । तथा जिस प्रकार धूप और छाया परस्पर विरोधी होनेके कारण एक साथ नहीं रह
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy