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________________ सर्वज्ञवाद ५३ कर्म.जली हुई रस्सीके समान निर्वल होता है, इससे उन्हें किसी प्रकारकी वेदना याने अनुभव होता हो तो भले हो परन्तु उन्हें किसी-प्रकारकी क्षुधा पीड़ा होनेका तो कोई कारण ही नहीं, क्यों कि वे अनंत वीर्यवाले हैं और ऐसे अनंत वीर्यवालेको पीड़ा किसप्रकार संभव हो सकती है ?। २. आहार करनेसे शरीर वलवान रहनेके कारण केवल ज्ञानीको दूसरे-किसीकी सेवा करनेका लाभ मिलता है इसलिये उन्हें आहार करनेकी आवश्यकता जान पड़ती है यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि केवलज्ञान हुए वाद वह केवल ज्ञानी त्रैलोक्य पूज्य बनते हैं इसलिये उन्हें किसीकी भी सेवा करनेका प्रसंग वाको नहीं रहता। ३-४. गमनागमनके समय सावधानता रखना और संयमका पालन करना ये भी कुछ आहार लेनेके साधन नहीं हैं क्योकि केवलज्ञानी अपने केवलशान और केवल दर्शनके द्वारा ही गमना-गमनके समयकी सावधानता रखकर पूर्ण अहिंसा पाल सकते हैं और उनका चारित्र भी जैसा शास्त्र में कहा है वैसा ही उच्च (यथाण्यात) होनेसे वे मात्र अपने अनंत वीर्यसे आहार ग्रहण किये बिना ही उसे पाल सकते हैं अतः उन्हें सावधानता रखने के लिये या संयमका पालन करनेके लिये भी आहार लेनेकी आवश्यकता नहीं है। ५. उनके जीवन के निर्वाहके लिये भी उन्हें आहार करनेकी जरूरत नहीं, क्योंकि उनका आयुष्य किसी भी प्रकार टूट नहीं सकता । अर्थात् चाहे जैसी बड़ेसे बड़ी आपत्तिमें भी वे सुखसेजी सकते हैं और उनका वीर्य अनंत होनेके कारण फक्त जीवन निर्वाहके लिये ही उन्हें आहार लेनेकी कोई जरूरत नहीं पड़ती। ६. केवलज्ञानीको धर्मतत्वका विचार करनेकी जरा भी आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होनेके कारण विना ही विचार किये सब कुछ जान और देख सकते हैं इस लिये इस कारणसे भी उन्हें भोजन करनेकी आवश्यकता नहीं जान पड़ती । इस प्रकार आहार करनेके इन कारणों से केवल
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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