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________________ सर्वज्ञवाद सकते उस प्रकार कुछ ज्ञान और भूखको परस्पर विरोध नहीं कि जिससे वे दोनों एक साथ न रह सकें। तथा जिस प्रकार केवल ज्ञानीको सुखका उदय होता है उसी प्रकार दुःखका भी उदय होता है और इससे ( दुःख. वेदनीयका उदय होनेके कारण) वह अनंत वीर्यवान है तथापि उसके शारीरिक वलकी क्षीणता और भूखके कारण पेटमें क्षुधापीड़ा तक होती है, इसी लिये उन्हें निराहारी माननेका कोई कारण नहीं। आहार लेनेसे केवल ज्ञानीको भी किसी प्रकारकी हरकत नहीं होती । तथा आपने जो यह कहा कि केवल ज्ञानीको वेदनीयकी उदीर्णा नहीं होती और इसीसे अधिक पुग्दलोंका उदय न होनेके कारण उन्हें बिलकुल पीड़ा नहीं होती, यह कथन भी आपका यथार्थ नहीं, क्योंकि चतुर्थ आदि गुणस्थान वेदनीयकोमें कर्मकी गुणश्रेणी होती है और इसी लिये वहाँपर अधिक पुग्दलोंका उदय होनेपर भी पीड़ा तो बहुत ही कम होती है और श्री जिनको सुख वेदनीयके प्रचुर पुग्दलोंका उदय न होने पर भी सुख तो वहुत ही होता है । इससे यह साबित हो सकता है कि बहुत पुग्दलोंके उदयके साथ सुख या दुःखकी अधिकताका कोई सम्बन्ध नहीं है । इस लिये आपके कहे मुजय कि बहुत पुग्दलोंका उदय न होनेसे उन्हें सर्वथा पीड़ा नहीं होती यह कथन यथार्थ नहीं हैं। तथा श्राप जो यह फरमाते हैं कि आहार करनेकी इच्छा करना यह भूख है और ऐसी इच्छा एक प्रकारकी मूरूिप होनेसे मोहनीय कर्मका अंश है, तोजो केवल शानी निर्मोहित हुये हैं उन्हें मोहकी पुत्री जैसी भूख किस तरह लग सकती है? यह कथन भी आपका यथार्थ नहीं है, क्योंकि भूख और मोहके बीच किसी प्रकारका सम्बन्ध ही नहीं। जिस तरह मोह या उसके विकार क्रोध मान, माया और लोभ वगैरहको दूर करनेके लिये उससे विरुद्ध भावना याने अमोही, अक्रोधी, अमानी, अमायी और अलोभी होनेका विचार करना पड़ता है उसी प्रकार कुछ भूखको दूर करनेके लिये निराहारी रहनेके विचार मात्रसे ही कुछ कार्य नहीं सरता किन्तु कुछ न कुछ पेटमें डालना ही पड़ता है। इससे यह स्पष्ट
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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