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________________ .. ५२ । जैन दर्शन स्वरूप और भविष्यकालीन वस्तुको भविष्य स्वरुपमें जाननेसे सर्वसके शानमें परोक्षत्व आ जायगा। " उ० यह आक्षेप भी आपका असत्य ही है। यद्यपि वर्तमानकालकी अपेक्षा भूतकालकी तथा झविष्यकालकी ये दोनों वस्तुयें 'असत्रूप हैं तथापि वह था और यह होवेगा, इस प्रकारका ज्ञान सर्वज्ञको होनेसे इसमें किसी तरहकी विपत्ति नहीं आ सकती। इस प्रकार अन्तमें सुख और दुखके अस्तित्व में जैसे किसीका विवाद नहीं हो सकता उसी प्रकार सर्वज्ञ भी निर्विवाद सिद्ध हो चुका है, अतएव हम (जैन लोग) ईश्वरको सर्वश मानकर ही देव तया पूजते हैं। 'कवलाहार-वाद' • दिगम्बर जैन कहते हैं कि उपरोक्त जो सर्वज्ञकी सिद्धि की सो हमें भी मंजूर है परन्तु इस विषयमें हमारा कथन है कि इस प्रकारके अनन्त दर्शन, शान, चारित्र, और शक्तिको धारण करनेवाले सर्वज्ञको हमारे समान श्राहार करनेकी आवश्यकता मालूम नहीं देती। इसी लिये हम केवलज्ञानीको 'कवलाहारकी श्रावश्यकता नहीं मानते । इस विषयके साथ सम्बन्ध रखनेवाली व्योरेवार चर्चा निम्नलिखे मुजब है दिगम्बर जैन-कोई भी केवलशानधारी ज्ञानी कवन आहार नहीं करता, क्योंकि वैसा करनेका उसे कुछ कारण नहीं। शास्त्रमें कवलाहार करनेके छह कारण बतलाये हैं जैसे किपेटमें क्षुधाकी पीड़ा होना, किसीकी सेवा करने जाना, जाते पाते सावधानता रखना, संयमका पालन करना,जीवनका निर्वाह करना, और धर्म तत्वका विचार करना। इन छहमेले एक भी कारण केवलज्ञानीके साथ सम्बन्ध रखनेवाला मालूम नहीं होता। इसलिये वे किस तरह आहार करें। . १. यदि यों कहा जाय कि, केवलज्ञानीको भी वेदनीय कर्मका उदय होता है इसीसे पेट में क्षुधा पीड़ा होनेका संभव है और इसी लिये उन्हें भोजन करनेकी भी आवश्यकता है, तो यह दलील यथार्थ नहीं है क्यों कि केवलंज्ञानीके उदयमें अानेवाला वेदनीय
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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