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________________ जैन दर्शन जैन-महाशयजी! आपकी यह दलील भी असत्य ही है, क्यों कि आत्माके ज्ञानगुणको तथा उसके विकासको रूकावट करनेवाले काँका विनाश होना यह सर्वज्ञ होनेका मुख्य कारण : है और यह कारण सदैव अस्तित्व धारण करता है । यह विषय', हम आपके समक्ष अब विशपरूपसे कथन करेंगे इसलिये आप यह तो कह ही नहीं सकते कि सर्वज्ञ होनेके कारण मालम नहीं । होते अतः कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता। जैमिनि-खैर हम यह कहते हैं कि सर्वज्ञ हुये बाद उसका . दुनियामें काम या प्रयोजन क्या है ? जब इस बातका ही पता .. नहीं लगता तो फिर निष्प्रयोजन उस निकम्मे सर्वज्ञको हम किस लिये माने ? जैन-सर्वशके कामका आपको भले ही पता न लगता हो परन्तु हमे तो उसके कामका पूर्णतया पता मिला हुआ है और वह यही है कि सर्वज्ञ हुये विना कोई भी वक्ता पूर्णतया सत्य नहीं बोल सकता, विवादरहित विषयोको यथार्थतया नहीं कह सकता और किसी भी सूक्ष्म वस्तुस्वरूपको संपूर्ण सत्य स्वरूपमें न तो स्वयं समझ सकता और न ही दूसरोंको समझा सकता है । इस प्रकारके सर्वशके किये हुये कार्य प्राज वर्तमान समयमें भी विद्यमान होनेके कारण सर्वज्ञ हुये वाद उसका दुनियामें क्या काम या प्रयोजन है ? ऐसा कहने मात्रसे आप सर्वज्ञका निषेध कर नहीं सकते। जैमिनि--हमे तो सर्वशताके साथ निरन्तर रहनेवाला ऐसा एक भी चिन्ह मालूम नहीं देता इसी कारण हम यह कहते हैं कि जगतमें कोई सर्वत्र नहीं है तो फिर इसमें अनुचित ही क्या है? जैन--महाशयजी! अनुचित नहीं तो उचित भी नहीं है। 'आश्चर्य तो सिर्फ इसी वातका है कि जो भापको मालूम नहीं देता वह हमे मालूम तुरन्त ही हो जाता है। सर्वशता और सर्व पदार्थोंका साक्षात्कार ये दोनों साथमें निरन्तर एक स्थानमें ही रहते हैं और सर्व पदार्थोका साक्षात्कार यह सर्वशताका मुख्य
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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