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________________ सर्वज्ञवाद चिन्ह है । सर्वशताके साथ निरन्तर रहनेवाला एक भी चिन्ह नहीं मिलता इसलिये सर्वश है ही नहीं ऐसा कहकर आप सर्वश को न माननेकी भूल न कीजिये । पूर्वोक्त निशान - चिन्हको साबित करनेके लिये इस जगतका अनुमान प्रमाण भी मिलता है । जिस प्रकार आँखोंके ऊपरसे पलक वगैरह एक तरफ हट जानेसे आँखोंखी देखनेकी सहज शक्ति आपसे आप प्रगट हो जाती है और उसके द्वारा हरएक प्रकारका रूप देखा जा सकता है उसी प्रकार आत्मा परके कर्मरूप पड़ल दूर हट जानेसे उसमें रही हुई अनन्त पदार्थोको जाननेवाली स्वाभाविकी शक्ति स्वयं प्रगट हो जाती है और उस अनन्त वस्तुशापकशक्तिद्वारा वस्तु मात्र या पदार्थ मात्र जाना जासकता है-तब ही उस शक्ति का धारक सर्वश कहलाता है । इस तरह सर्व पदार्थोंके साक्षाकारकी सम्बन्ध ग्रन्थी सर्वज्ञताके साथ निरन्तर ही लगी रहती है और वह किसी भी समय किसीसे जुदी नहीं की जा सकती। इस प्रकार आपकी किसी भी दलीलसे सर्वक्षका निषेध सिद्ध नहीं हो सकता । ४७ जैमिनि - महाशयजी ! आप ऐसा क्यों फरमाते हैं ? हमे ऐसे बहुतसे साधन मिले हैं कि जो सर्वक्षका विरोध करते हैं और इसी कारण हम सर्वज्ञका स्वीकार नहीं करते । जैन- आपको जितने साधन सर्वज्ञका विरोध करनेवाले मिले हाँ कृपया वे सब हमे जना देना चाहिये कि जिससे हम आपका निराकरण कर सकें। हम आपसे यह पूछते हैं कि सर्वज्ञका विरोध करनेवाले जो साधन आपको मिले हैं क्या वे आपने समस्त संसारमेंसे प्राप्त किये हैं ? या अमुक किसी जगह से प्राप्त किये हैं । जैमिनि -सो तो हमने किसी अमुक जगहसे ही प्राप्त किये हैं ? जैन - महाशयजी ! आपने जहाँसे उन साधनोंको प्राप्त किया हो वहाँ पर ही वे सर्वज्ञका निषेध कर सकते हैं, परन्तु अन्यत्र उन साधनों द्वारा सर्वज्ञका निषेध हो नहीं सकता । अर्थात् उन साधनों से श्राप सर्वज्ञका सर्वथा निषेध नहीं कर सकते । जैमिनि - जरा ठहरियेगा, ऐसा नहीं है। पूर्वोक्त साधन कि जो
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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