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________________ सर्वज्ञवाद ४५, परन्तु किसी कारण वह मालूम न देती हो उसे श्राप नहीं मालम होती कहते हैं ? या जो वस्तु सर्वथा कहींपर भी हो ही नहीं मालूम होती कहते हैं ? इस वातका स्पष्टीकरण होना चाहिये। जौमिनि--नहीं सर्वत्र प्रभाव हो ऐसा नहीं किन्तु विद्यमान. हो परन्तु किसी कारण मालम न होती हो उसे ही हम मालम नहीं होती कहते हैं जैन--वस हो चुका, तव तो यहाँ पर नहीं किन्तु कहीं अन्यत्र तो सर्वज्ञकी सिद्धि आपके ही मुखसे सावित होगई और ऐसा होनसे एतद्विपयक हमारा विवाद भी समाप्त होगया। जैमिनि-नहीं ऐसा नहीं है । हम मालूम नहीं होनेका अर्थ ऐसा करते हैं कि जो कहींपर भी सर्वथा न हो उसे ही हल मालूम नहीं होती कहते हैं। जैन-महाशयजी! यह मान्यता भी आपकी निर्मूल ही है, क्यों कि जो वस्तु कहींपर भी नहीं है, जिसका सर्वत्र प्रभाव ही है उसके बारेमें मालूम देती है या वह मालूम नहीं होती यह सवाल ही किस तरह हो सकता है ? अर्थात् सर्वथा और सर्वत्र अविद्यमान वस्तुके लिये वह मालूम नहीं होती यह विशेषण कदापि नहीं शोभता । आप जो यह फरमाते हैं कि कहीं पर भी वह विद्यमान नं हो, यह वात तो हमारे ही लाभदायक है। क्यों कि यह वात आप छाती ठोककर तो तभी कह सकते हैं जव कि आपने तमाम स्थान देख लिये हो और जब आप तमाम स्थलोको जान कर वा देख कर उस वस्तुके अस्तित्व या नास्तित्वके वारेमें निश्चयात्मक कथन करें तब हम आपको ही सर्वज्ञ कह सकते हैं। इस प्रकार आपके कथनानुसार भी सर्वज्ञ साबित हो जाता है । अर्थात् कोई सर्वज्ञ कहींपर मालूम नहीं होता, यो कह कर आप सर्वशका निषेध नहीं कर सकते। जैमिनि-अस्तु, यह दलील जाने दीजिये, हम दूसरी यह दलील पेश करते हैं कि सर्वज्ञ होनेके कारण मालूम नहीं होते अतएव कोई सर्वश नहीं हो सकता । अव वतलाइये आप इसमें क्या दोष निकालते हैं।
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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