SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ जैन दर्शन आज प्रत्यक्ष नहीं दीखते, तो क्या इससे प्रत्यक्षं प्रमाण इन . सर्वके अस्तित्वका निषेध कर सकता है ? यह वात तो आपको . भी मंजूर करनी पड़ेगी कि ऐसा कदापि नहीं हो सकता। अतः . . आपका कथन आपको वापिस खींच लेना चाहिये इसीमें आपकी शोभा है। जैमिनि-खैर जाने दीजिये प्रत्यक्ष न सही अनुमान प्रमाण तो । अवश्य ही सर्वज्ञकी सिद्धिमें रुकावट करता है। जैन-सो किस तरह ? आप इसके लिये किस किस प्रकारके . अनुमान करते हैं ? क्या आप यों कहना चाहते हैं कि सर्वन नहीं - है? या सभी सर्वज्ञ अल्पज्ञ-असर्वश हैं ? या वुद्ध वगैरह सर्वश . ' नहीं हैं ? अथवा आप यह कहना चाहते हैं कि सव पुरुष सर्वशं नहीं हैं ? जैमिनि-प्रथम तो हम यही कहते हैं कि सर्वज्ञ कोई है ही नहीं।' जैन-महाशयजी! ऐसा कह देने मात्रसे निषेध नहीं होता . किन्तु निषेधकारक कोई कारण जनाना चाहिये। जैमिनि कारण यही कि कोई सर्वज्ञ मालूम नहीं देता, सर्वज्ञ होनेके कारण मालूम नहीं होते, सर्वज्ञ होनेका कुछ प्रयोजन भी मालूम नहीं होता अर्थात् सर्वज्ञकी कोई आवश्यकता मालूम नहीं . होती और सर्वशताके साथ नित्य रहनेवाला कोई चिन्ह भी नहीं मालूम होता, इसी कारण हम कहते हैं कि सर्वज्ञ नहीं है। जैन-महाशयजी! यदि आपका यह सिद्धान्त हो कि जो वस्तु मालूम नहीं देती उसे नहीं मानना तो फिर आप दूसरोंके चित्तमें रहे हुये अभिप्रायोंको भी नहीं जान सकते हैं इससे उसके अस्तित्वको श्राप किस तरह मान सकोगे? इसी प्रकार (परमाणु पिशाच आदि ) ऐसी बहुत सी वस्तु हैं कि जिन्हें आप जान नहीं सकते हैं उन्हें आप किस तरह मान सकते हैं ? हमे तो यह जचंता है कि जो वस्तु मालूम नहीं होती वह है ही नहीं ऐसा सिद्धान्त ही असत्य है । खैर हम आपसे एक यह प्रश्न पूछते हैं आप जो यह कहते हैं कि जो नहीं मालूम होती वह नहीं है, इसका स्पष्ट अर्थ क्या समझना चाहिये ? जो वस्तु कहीं पर तो विद्यमान हों
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy