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________________ सर्वज्ञवाद ३७ मतानुयायी कहते हैं कि संसारका कोई भी मनुष्य सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता, अतः वे दोनो मतवाले सर्वज्ञवादका निराकरण करनेके लिये नीचे लिखे मुजय चर्चा करते हैं । जैमिनि - आप जिसे सर्वज्ञ आदि विशेषण लगाते हैं वैसा कोई देव हो ही नहीं सकता, क्योंकि इस प्रकार के देवको सावित कर नेके लिये कोई भी प्रमाण नहीं मिलता । जैन - महाशयजी ! हमारी समझ सुजय तो देवकी सर्वज्ञताको साबित करनेके लिये एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही काफी है । देवकी देहधारी दशा उसका सर्वज्ञपन प्रत्यक्ष आँखासे देखा जा सकता है अतः इस वातको सिद्ध करनेके लिये दूसरे प्रमाणों तथा प्रश्नोंकी कोई जरूरत ही नहीं देख पड़ती । जैमिनि - यह तो आपका कथन हमे सत्यसा मालूम होता है । इस वातको तो आप भी मानते हैं कि वर्तमान समय में ऐसा कोई देहधारी नहीं कि जो सर्वज्ञताको धारण करता हो । ऐसा होने पर अपनी आँखोंसे उसे कैसे देख सकते हैं ? या उसे प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा किस तरह सिद्ध कर सकते हैं । कदाचित् प्राप यो कह सकते हैं कि भूतकाल में बहुतसे सर्वज्ञ होचुके हैं । परन्तु भूतकालकी वातोंको हम नजरसे नहीं देख सकते, अतः सर्वज्ञकी सिद्धि करनेमें प्रत्यक्ष प्रमाणका आलम्बन लेना सर्वथा व्यर्थ है । जैन - कदाचित् प्रत्यक्ष प्रमाणसे यह बात सिद्ध न हो सकती हो तो हम इसे अनुमान प्रमाणसे तो अवश्य ही सिद्ध कर सकते हैं । जैमिनि -- महाशयजी ! यह वात तो आप भली प्रकार जानते हैं कि जहाँ जहाँ पर प्रत्यक्ष प्रमाण पहुँच सकता है वहाँ पर ही अनुमान प्रमाण काम दे सकता है । यहाँ पर तो आपके ही कथनानुसार सर्वेशकी सर्वज्ञताको साबित करनेमें प्रत्यक्ष प्रमाणं समर्थ ही नहीं है, तो फिर उसके आधार पर चलनेवाला अनुमानं प्रमाण किस तरह काम कर सकता है ? अर्थात् अनुमान प्रमाण द्वारा भी सर्वक्षकी सिद्धी नहीं हो सकती और इसी तरह सर्वज्ञ के
SR No.010219
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherTilakvijay
Publication Year1927
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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